अमर कुमार अपनी जगह पर बेठा हुआ था। उसने अपना सर पुस्तक में छुपा रखा था। पंडितजी की अनुपरिस्थिति में अमर कुमार ही पाठशाला को सम्हालता था ।उसमे छात्र छात्रा चले गये अपने अपने घर फिर भी अमर कुमार अकेला बेठा रहा गुमसुम होकर। उसका तन मन बेचेन था । एक पल उसे गुस्सा आता था बस केवल सात कोडी के लिए सुन्दरी ने कितने सरे विद्यार्थियो के बिच मेरा मुह तोड़ दिया ।मेरा अपमान किया। मुझे चोर कहा ।मुझे क्या मालुम की वह इतनी कंजूस होगी ।मुझे क्या पता वह सात कोडी के लिए मेरे प्यार को चूरचूर कर देगी। मै तो उस पर कितना भरोसा रखता था। मुझे तो लगा था कि वह जब जागेगी और अपने हिस्से की मिठाई देखकर अजूबे में रह जायेगी मेरे सामने तकती रहेगी आश्चर्य से मुझसे पूछेगी तब मै वह दूंगा। यह तो पैसो की मिजबानि है। तब वह हस देगी अपने हिस्से में से मुझे खिलाकर फिर खुद खायेगी और कहेगी तेरी जेब में से सुवर्णमुद्राए लेकर में मिजबानि मनाऊँगी ध्यान रखना। पर गलती मेरी ही है। राजकुमारी के साथ मैत्री करना ही नहीं चाहिए। राजा लोग तो अभिमान होते ही है, उनकी राजकुमारी को तो उनसे भी ज्यादा घमंड होता है। है! तो मेरे को क्या? उसका घमंड उसके पास रहे। मै तो अब इसके साथ बोलूगा ही नहीं। उसके सामने भी नहीं देखूँगा। उस दिन जब शाला में से निकालकर हम दोनों साथ घर जा रहे थे तब उसने ही तो मुझे कहा था अमर तू कितना अच्छा लड़का है। पाठशाला में पढ़ते- पढ़ते भी मेरी नजर तेरे पर गिरती है और वही ठहर जाती है। बस जैसे तुझे देखती रहु। अमर मै तुझे अच्छी लगती हु?।तब मेने उसे कहा था- सुर मुझे तु बहुत अच्छी लगती है। तेरे सिवा और कुछ अच्छा ही नहीं लगता ।तब वह कितनी शरमा गयी थी। प्यार से मेरा हाथ पकड़ लिया था और टुकुर टुकुर मेरे सामने देख रही थी। वह कुछ कहना चाहती थी पर उसका गला भर गया था ।फिर तो वह दोनों खामोश होकर चलते रहे वह उसके महल में गयी मै मेरी हवेली में पंहुचा और उसने आज यह क्या कर दिया उसकी हिरणी सी आँखो में आज प्यार नहीं था, आग जैसे बरस रही थी।
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