श्रेष्ठि धनावह की गगनचुम्बी हवेली भी आनंद के हिलकोरे से झूम रही थी । नगर के अनेक अनेक श्रेष्ठि धनावह सेठ को धन्यवाद देने के लिए आ-जा रहे थे।
अमरकुमार को उसके अनेक मित्रों ने घेर लिया ।
बचपन के सहपाठी मित्र बचपन की घटनाएं याद कर कर के हँसी – मजाक कर रहे थे। अमरकुमार के दिल मे हर्ष का सागर उमड़ रहा था।
जिसकी चाहना थी पर आशा नही थी ऐसा सुख उसे मिल चुका था ,फिर क्यो न आनंद उमड़े?आशातित वस्तु की सहज प्राप्ति,बिना प्रयत्न की हुई प्राप्ति मनुष्य को हर्ष से गदगद बना डालती है। भोजन का समय हो चुका था। माता ने अमरकुमार को भोजन के लिये आवाज दी। पिता-पुत्र दोनो को सेठानी धनवती ने पास में बिठाकर भोजन करवाते हुए कहा:’ अरिहंत परमात्मा की औऱ गुरुजनो की अचिन्त्य कृपा के बिना ऐसा नहीं हो सकता! राजकुमारी जैसी राजकुमारी अपने घर मे बहु बनकर आये,वह क्या सामान्य बात है?’ सही कहना है तुम्हारा ! चंपानगरी के इतिहास में ऐसी घटना पहली है कि राजपरिवार की लड़की वारिस कुल में पुत्रवधू बनकर आये। महाराजा ने जब मुझे महल में बुलाकर यह बात की तब पहले तो मैं हक्काबक्का सा रह गया।’ सचमुच सुरसुरन्दरी तो सुरसुरन्दरी है! सारी चंपा में ऐसी कन्या देखने नही मिलती। चंम्पा में ही नहीं समूचे अपने राज्य में ऐसी कन्या मिलना कठिन है। सेठ सेठानी उछलते दिल से बाते कर रहे है। अमरकुमार मोन है ,भोजन कर रहा है,पर उसका मन तो सुरसुरन्दरी के विचारो में खोया खोया पुलक रहा है। ज्यो- त्यों दो चार कोर निगले न निगले ओर वह अपने शयन खंड में पहुंच गया।सुरसुरन्दरी की कल्पना मूर्ती उसके समक्ष साकार हुई।वह उससे बतियाने लगा। मन ही मन अपने नसीब को अभिनंदित करने लगा । भावी जीवन की सुखद कल्पनाओं की ईंटे रख रखकर सपनों की इमारत रचने लगा।
आगे अगली पोस्ट मे..