जब इंसान की कोई इंद्रधनुषी मधुर कल्पना साकार हो उठती है तब वह ख़ुशी से झूम उठता है। आनंद के पंख लगाता है कल्पनाओ के अनन्त आकाश में। यह धरती उसे स्वर्ग से ज्यादा खूबसूरत नजर आती है।
रानी रातिसुन्दरी ने जब पुत्री को बधाई दी कि ‘ अमर कुमार के साथ तेरा विवाह करना तय हो गया है , तब पल दो पल तो सुरसुन्दरी अविश्वास से माँ की ओर निहारती रही…उसे लगा… शायद माँ मेरी मन की बात को जानकर मेरा उपहास कर रही है ।’ पर जब रतिसुंदरी ने उसे विश्वास दिलाया तब जाने सुरसुन्दरी को विश्व का श्रेष्ठ सुख मिल गया हो उतनी खुशी हुई ।पर उसने अपनी खुशी माँ के समक्ष प्रकट न होने दी। इस खुशी के फूल तो सहेलियों की बीच बिखेरने के होते है न?
प्रिय के संयोग की कल्पना तो जैसे अफीम के नशे सी है…। दिल का दरिया उफन _उफन कर बरसो से जैसे
छलक रहा हो…ह्दय के उस देव का सान्निध्य…. साहचर्य प्राप्त होने की शहनाई जब मन के आंगन में गूँजने लगती है तब मोह का नशा चढेगा ही।
सुरसुन्दरी को लगा- वह जमीन पर खड़ी नही रह सकेगी। वह दौड़ गई अपने शयनगृह में । दरवाजा बंद किया और पलंग में लोटने लगी । अमर…अमर…’ उसका मन पुकार उठा… उसका दिल पागल हो उठा ।
न सोचा हुआ सुख उसके दरवाजे पर दस्तक दे रहा था । अकल्पय शुभ कर्मों ने उस पर महर की थी । वह अमर के साथ भावी सहजीवन की कल्पनाओ में डूब गई।
उसका श्रद्धा से भरा दिल बोल उठा : सुंदरी ! तेरी परमात्म भक्ति का यह तो पहला पारितोषिक है । अभी तो तुम्हे इससे भी बढ़-चढ़ कर सुख मिलने वाला है ।’
उसका विश्वस्त मन बतियाने लगा : ‘सुंदरी, यह तो गुरुजनो के आंतरिक आशिर्वाद तेरे पर बरसे है सावन के बदलो की तरह , देखना…कहीं सुखों के पुष्करावन्त मेध के प्रवाह में बह मत जाना।’ उसका तत्वज्ञान उसे समझने लगा …. ‘सुंदरी , पुण्यकर्म का उदय जब आता है तब सुख का दरिया उछलने लगता है पर वह उदय शाश्वत नहीं होता ….क्षणिक होता ।’
वह पलंग पर नीचे उतरी ,उसने वस्त्रपरिवर्तन किया। द्वार खोलकर वह बाहर आयी।
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