सुरसुंदरी देखती ही रही…. रत्नजटी के विमान को जाते हुए ! जब तक विमान
देखता रहा… वो आकाश मे ताकती रही । वीमान दिखता बंद हुआ और सूरसुन्दरी धैर्य
गँवा बेठी। ज़मीन पर ढेर हो गयी और फुट फुट कर रोने लगी । भाई के विरह की
वेदना से व्याकुल हो उठी। दो घटीका उसने वैसे ही बेठे बेठे बीता दी ।उसने अपने
पास दो मंजूषाए पड़ी देखी । रत्नजटी रख गया था। एक पेटी मे सुंदर
कीमती कपड़े व गहने थे । दूसरी मंजूषा मे सोना मुहरे थी एवम एक पुरुष -वेष था ।
सूरसुन्दरी ने स्वस्थ होकर पहला कार्य रुप -परिवर्तन करने का किया ।
विधाशक्त्ति से उसने पुरुष का रुप बना लिया और तुरंत कपड़े भी बदल लिये ।पुरुष
का वेष सजा दिया। स्त्री के कपड़े उतारकर मंजूषा मे रख दिये ।
‘अब मे बिल्कुल निशचीत हूँ। दुनिया स्त्री रुप की शिकारी है। पुरुष के रुप
मेरा शील सुरक्षित रहेगा । सचमुच, रत्नजटी की रानियों ने मुझे बड़ी अद्भुत और
अनमोल भेट दी । मॆै निर्भय और निशचीत हो गयी हूँ ।अब मै इस नगर मे ही रहुगी ।
अमरकुमार का मिलन इसी धरती पर होने वाला है । चाहे वह कल चला आये या पाँच बरस
लगाये। कोई फर्क नही पड़ता। अब मुझे फिक्र किस बात की ?….. सूरसुन्दरी
विचारो मे डूबी हुई वहा पर बेठी थी… इतने मे एक प्रौढ़ उम्र की स्त्री
उसके पास आयी। आकर खड़ी रही ।
लगता है तुम परदेशी जवान हो ?’
हा’
आपका शुभ नाम बता सकेंगे ?’
‘विमलयश !’
ओह…. आपका परिचय देगे ?’
मेरा परिचय मै एक राजकुमार हूँ । ‘वह तो आपकी आकृति और आपके वसत्रालंकार ही
बता रहे है ।
मुझे यहाँ कुछ दिन रहना है, रहने के लिये उपयुक्त जगह मिल जयेगी क्या ? कहाँ
मिलेगी, क्या तुम मुझे बता सकती हो ?’
क्यों नही ? ज़रूर ! यह पर अनेक पान्थशालए है, धर्मशालाएं है, पर वे सार्वजनिक
है। तुम्हे शायद पसंद नही भी आयेगी । वहा तो कभी भी, कोई भी आ- जा सकता है।
हाँ यदि तुम्हे एतराज न हो तो मेरे यहा पधारो…।’
तुम्हारा परिचय ?’
मे इस बगीचे की मालिन हूँ
इस उधान के दक्षिण छोर मे मेरा मकान है। हम दो पति पत्नी ही वहा रहते है। और
फ़िर कभी कभी परदेशी अक्सर मेरे वहाँ आते है ठहरते है । तुम्हरे लिये अलग कमरा
निकाल दूँगी । तुम्हे मनपसंद भोजन बना दूँगी ।’
आगे अगली पोस्ट मे…