तपोवन से ज्यादा दूर नही… ज्यादा नजदीक भी नही….’वसंतपुर’ नाम का नगर था । वसंतपुर के नागरिकों के लिए ‘सुपरितोष’ तपोवन सुपरिचित था । नगर में तपोवन के कुलपति आर्य कौडिन्य के प्रति बहुत श्रद्धा थी । नगर पर आर्य कौडिन्य का अच्छा-खासा प्रभाव था । उसके स्वरूप वसंतपुर के इर्दगिर्द के जंगलों में किसी भी वन्यप्राणी की हिंसा नही होती थी। राजा या राजकुमार भी शिकार नही करते थे।
राजा ‘गुणसेन’ने वसंतपुर को अपनी दूसरी राजधानी बनाया था। वसंतपुर स्वच्छ और सुंदर नगर था । उस नगर की रचना भी कलात्मक थी। स्वच्छ और चौड़े राजमार्ग थे । नगर के मध्य में रमणीय उद्यान था । राजमार्ग के दोनों और वृक्षो की पंक्तियां मनोहारी लगती थी । एक से एक पंक्तिबद्ध सुंदर मकान एवं व्यापरस्थान, उत्तम स्थापत्य कला के नमूने रूप थे ।
नगर में कोई दरिद्र नही था । घर-घर मे वैभव-संपति का साम्राज्य था । फिर भी प्रजाजन में उन्माद नही था, औदित्य नही था,नगर के हर मुहल्ले में परमात्मा के मंदिर थे । लोगो मे परमात्मा के प्रति, साधुपुरुषो के प्रति और धर्म के प्रति प्रेम था-आदर था ।
नगर के मध्य में उद्यान के सामने एवं भव्य विशाल राजप्रसाद था । वसंपुर के शिल्पियों ने अपनी कला को महल की इमारतों में उतारा था । मंदिर की दीवारों में उतारा था ।
वसंतपुर में बरसाती हवा की भांति समाचार फैल गये।
‘तपोवन में एक नये तापस ने महीने के महीने उपवास करने की प्रितिज्ञा की है ।
पारणे के दिन पहले घर पर यदि पारणा होगा तो करेगा…. यदि नही हुआ पारणा, तो दूसरे घर पर पारणा करने नही जाएगा । दूसरे महीने के उपवास चालु कर देगा ।’
नगर मे घर घर और गली-गली में, दुकान-दुकान और हाटबजार में नये सन्यासी की महाप्रतिज्ञा की ही चर्चा हो रही थी ।
‘तपोवन तो तपोवन है ।वहां का वातावरण कितना पवित्र….कितना निर्मल और कैसा शांत-प्रशांत है !’
‘नये सन्यासी ने बड़ी कठोर प्रतिज्ञा की है !’
‘और…
आम्रवृक्ष के तले पत्थर की चट्टान पर आंखे बन्द कर के पद्मासनस्थ बैठ गये है ! किसी की ओर देखना तक नही की किसी के बात तक नही करना !’
‘अलबत्ता, शरीर उनका सुंदर नही है…. बेढंगा है… परंतु उनकी आत्मा सचमुच ही महान है ।’
‘शरीर सुंदर हो, परंतु आत्मा यदि अधम हो तो ऐसे सुंदर शरीर को क्या करना ? इस तपस्वी की आत्मा महान है…. उज्ज्वल है ।’
‘भैया, हम दो दिन पहले ही दर्शन कर आये ! धन्य हो गया अपना जीवन तो !’
‘अरे, कुलपति स्वयं उस नये तपस्वी की प्रशंसा करते है !’
‘गुणवान शिष्य की प्रशंसा गुरु भी प्रत्यक्ष या परोक्षरूप में करते ही है ।’
– चौतरफ अग्निशर्मा की प्रशंसा होने लगी ।
-तपोवन में दर्शनार्थियों के टोले आने लगे ।
– ‘अपने अपने घर पर अग्निशर्मा पारणा करने के लिए कृपा करें….’ नगरजन मन ही मन ऐसी कामना करने लगे ।
-इस तरह अग्निशर्मा ने लाखों मासक्षमण (महीने-महीने के उपवास) किये ।
दूर दूर तक उसकी कीर्ति फैलती गई । फिर भी स्वयं अग्निशर्मा तो ममत्वहीन और विरक्त हो रहा । उसे अपनी साधना और आराधना से ही जैसे मतलब था । और सब बातें उसके लिए बिना महत्व की थी ।