‘प्रभो, आपके कहे अनुसार तपोवन के पूर्वभाग में आम्रवृक्ष के तले पत्थर की चट्टान पर मै बैठूंगा । पारणे के दिन ही वहां से खड़ा होऊंगा ।’
‘तेरे लिए पूर्ण रूपेण उपयुक्त है वह स्थान ।’
वार्तालाप सुन रहे तापसौ को संबोधित करते हुए कुलपति आर्य कौडिन्य ने कहा :
‘तपोवन के तपस्वीजन ! अब तुम सब को बराबर सावध एवं जाग्रत रहना है । अग्निशर्मा-नूतन तापस की घोर प्रतिज्ञा तुमने सुनी ही है। तपोवन की पूर्व दिशा में आम्रवृक्ष के तले जो चट्टान है, उस पर यह महातपस्वी बैठेगा और ध्यानमग्न बनेगा। उस इलाके में निष्प्रयोजन किसी को जाने का ही नही ! जाना पड़े तो पूर्ण मौन रहने का। तनिक भी आवाज या शोर ना हो, उसकी सावधानी बरतना। उस महात्मा की आराधना-साधना में तुम सब को भली-भांति सहायक होना है ।
तुम सभी गुणानुरागी हो, यह मुझे विदित्त है । अग्निशर्मा के प्रति तुम सब के दिल मे अनुराग जन्मा ही होगा। ईष्यारहित अज्ञानी लोगो को भी गुणों का आकर्षण रहता है…. तब फिर तुम सब तो ज्ञानी और गुणानुरागी हो ।’
‘गुरुदेव….’ मुख्य और बड़े तापस ने खड़े होकर कुलपति के चरणों मे नमन कर के कहा :
‘इस महातपस्वी से तो अपना तपोवन ख्याति प्राप्त करेगा। तपोवन की कीर्ति बढ़ेगी। इस महातपस्वी ने सचमुच, उग्र तपश्चर्या करने की प्रतिज्ञा की है। धन्य है इसको ! आप बिल्कुल निश्चित रहिए… हम निष्ठापूर्वक उनकी परिचर्या में रहेंगे। उनकी आराधना-उपासना में किसी तरह का विघ्न न आये, किसी भी तरह का विक्षेप न हो…. खलल न हो… इसके लिए हम सभी जाग्रत रहेंगे।
इस महापुरुष अग्निशर्मा ने तो वास्तव में तापस जीवन को सार्थक-सफल बनाने का प्रशस्त रास्ता अपनाया है। हम पुनः पुनः अन्तःकरण से- तहे दिल से उनकी उनके साधनामय नूतन जीवन की अनुमोदना करते है। उनके प्रति सचुमुच ह्रदय अपार प्रेम…भीतरी अहोभाव पैदा हुआ है ।
‘गुरुदेव आप फिक्र मत कीजिए। आपकी कृपा एवं अनुग्रह के सहारे हम सब तापस, आश्रम में तपोवन-में पारस्परिक मैत्री को ज्यादा सघन बनाएगें। एक दूसरे की साधना-आराधना में सहायक बनेंगे। आखिर, वही तो हमारे जीवन का उद्देश्य है… सार्थक्य है ।
आगे अगली पोस्ट मे…