‘वत्स, तूने जीवन का मोह तो छोड़ ही दिया है । अब तुझे भीतरी भावनाओं एवं कामनाओं पर विजय प्राप्त करना है। ज्यो ज्यो तेरी तपश्चर्या की बात गांव- गांव और नगरों में फैलेगी…. त्यों त्यों गुणानुरागी लोग तेरी प्रशंसा करेंगे… तेरा गुणगान करेंगे… तेरे दर्शन के लिए आयेंगे। तेरे दर्शन करके अपने आप को धन्य मानेंगे । उस समय मान-सम्मान की भावना पैदा नही होनी चाहिए। जैसे अपमान में से दुःख की भावना पैदा होती है…. वैसे मान-सम्मान में से हर्ष की भावना उठती है । इस दोनों प्रकार की भावनाओ से मुक्त रहना है। हर्ष और विवाद से मुक्त रहना है ।’
‘गुरुदेव, हर्ष और विवाद से मन को मुक्त रखने का उपाय बताने की कृपा करें !’
‘इसके लिए वत्स ! मन और नयन-दोनों को परमात्मा के ध्यान में जोड़ देने का। मन मे दुनिया के विचार नही आएंगे…। आंखों से दुनिया नहीं दिखेगी। दुनिया को देखने की और सोचने की व्रति एवं प्रवति जब बंद हो जाएगी… तब फिर हर्ष उद्वेग के द्वन्द्व नही उठेंगे। ‘समभाव में तू स्थिर रह सकेगा। आत्मा का स्वयं भू आंनद तू अनुभव कर सकेगा ।’
‘प्रभो, अतीत की अच्छी-बुरी अनुभूतियां स्मृति बनकर चित्त में पैदा होती है…. कभी कभार, तब हर्ष या उद्वेग की बृत्ति सहज ही उठती रहती है !’
‘महानुभाव, अनुभवी की स्मृति होना स्वभाविक है । परंतु यदि मन को आत्मध्यान में या परमध्यान में जुड़ा हुआ रखा जाए तो स्मृतियो को मन मे प्रवेश करने का अवकाश ही नही रहेगा !’
‘सतत…. निरन्तर…. रात और दिन, क्या मन परमात्मा में या आत्मा में जुड़ा हुआ रह सकता है ?, अग्निशर्मा तापस ने सवाल किया ।
‘वत्स, सतत अभ्यास और प्रयत्न से यह संभव है । तुझे एक महीने तक इस दुनिया के सम्पर्क में आने की आवश्यकता ही नही रहेगी ! तपोवन के बाहर जाने का ही नहीं । तू सतत एक महीना ध्यान में लीन -तल्लीन रह सकेगा । नासिका के अग्रभाग पर दृष्टि करके पद्मासनस्थ बैठकर…. आत्मा परमात्मा में स्थिर-लीन-तल्लीन बन सकेगा। बस, पारणे के दिन ही तेरे मन-नयन दुनिया के सम्पर्क में आएंगे !’
‘तब हर्ष-विषाद की वृत्तिया उठने की सम्भवना बनी रहेगी ना ?’
‘परंतु… वह सम्भावना कम रहेगी । महीने तक आत्मा और परमात्मा के ध्यान में आनंद की अनुभूति करने को अभ्यस्त मन हर्ष-विशाद से से अलिप्त रह सकेगा। भूतकाल के अनुभवो की यादे रुक जाएगी ।’
आगे अगदी पोस्ट मे…