अग्निशर्मा को तपोवन का वातावरण पसंद आ गया । दिल मे बस गया ।
कुछ डर नही…. कोई पीड़ा नही ! कोई अपमान नही…. कोई तिरस्कार नही ! तापसो के मृदु और मधुर वचन, कुलपति का अपार वात्सलय, परस्पर का उत्कृष्ट मैत्रीभाव… धार्मिक और आध्यत्मिक वातावरण, निसर्ग का मोहक सौन्दर्य…. परमार्थ और परोपकार की भावनाएं !
‘सुपरितोष’ नामक यह तपोवन अग्निशर्मा को बहुत ही पसंद आ गया । उसने कुलपति से तापस जीवन के व्रत नियमो का ज्ञान प्राप्त कर लिया। उसने अपना समग्र जीवन कुलपति के चरणों मे समर्पित करने का संकल्प किया। एक पवित्र व शुभ दिन में कुलपति ने, सभी तापसौ की उपस्थिति में अग्निशर्मा को तापस की दीक्षा दी । अग्निशर्मा को गेरुए वस्त्र पहनाये गये । त्रिदंड व कमंडल दिया गया । सिर पर मुंडन किया गया। अग्निशर्मा के दिल मे वैराग्य का समुद्र उछल रहा था। जीवन के प्रति कुछ मोह नही रहा था। शरीर पर तनिक भी ममत्व नही बचा था। उसे तो उत्कृष्ट धर्म की आराधना-साधना करके, आनेवाले जन्मों की परंपरा को सुखमय और आनंदमय बनानी थी। उसके दिल मे ‘धर्म से ही सुख मिलता है ।’ यह सिद्धांत जच गया था।
उसने कुलपति से जान लिया था कि ‘तपश्चर्या और ज्ञान से आत्मा जल्दी विशुद्ध होती है,’ उसने दीक्षा के दिन ही कुलपति के समक्ष, सभी तापसौ की उपस्थिति में एक महाप्रतिज्ञा की :
‘भगवंत, मै जीवन पर्यन्त महीने-महीने के उपवास करुंगा । पारणे के दिन सर्वप्रथम जिस घर मे भिक्षा के लिए प्रवेश करुंगा… वहीं पर पारणा करूंगा । यदि किसी कारणवश पहले घर पर पारणा नही हुआ तो दूसरे घर पर पारणे के लिए नही जाऊंगा । दूसरे महीने के उपवास प्रारंभ कर दूंगा ।’
धन्य…. धन्य… महातपस्वी !’
उपस्थित सैकड़ो तापसौ ने अग्निशर्मा को पुनः पुनः धन्यवाद दिये। कुलपति आर्य कौडिन्य ने भी अग्निशर्मा के सिर पर हाथ रखकर वात्सलयपूर्ण शब्दो से कहा :
‘वत्स, तूने घोर प्रतिज्ञा की है, दृढ़ता से ली हुई प्रतिज्ञा का पालन करना । और तापस जीवन को सफल बनाना ।
प्रभो, आपकी अनुकम्पा से ही मैने यह प्रतिज्ञा की है । आपने मुझे आपके श्री चरणों में आश्रय दिया, मेरे जख्मी दिल पर शीतल विलेपन किया…. मुझे प्रेम और वात्सलय दिया, आपके हाथों में मेरा जीवन सुरक्षित हो गया…!’
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