अग्निशर्मा ने चिन्तित होकर पुछा-
‘पर गुरुदेव, इस तपोवन में कई तापस रहते होंगें, क्या वे मेरा पराभव नही करेंगे ? वे मेरा मजाक नही उड़ाएँगे ?’
‘वत्स, इस तपोवन में रहनेवाले सभी तापस अपनी ऊनी उपासना-आराधना के रत हैं । किसी भी जीव को पीड़ा पहुँचे वैसा आचरण वे कभी नही करते है । दूसरे जीवों के दिल का ही विचार करते है… इसलिए महानुभाव ! तू निश्चित होकर तपोवन में रह ।’
अग्निशर्मा आशवस्त हो गया । कुलपति ने कहा :
‘मै तुझे विस्तार से तापसधर्म समझाऊंगा । आश्रम के आचारविचारो की जानकारी दूँगा । इसके बाद प्रशस्त तिथि के दिन शुभ मुहूर्त में तुझे तापस दीक्षा दूंगा ।’
‘भगवंत, आपने मेरे पर महान अनुग्रह किया ।’
कुलपति आर्य कौडिन्य ने तापसकुमार से कहा :
‘भद्र, अपने इस अतिथि को सर्वप्रथम दुग्धपान करवाओ और मधुर फलाहार करवाओ। फिर उसे एक अनुकूल पर्णकुटी दे देना ।’
अग्निशर्मा की ओर देखकर कहा : ‘वत्स, तीस दिन से तू निरंतर चलता रहा है… इसलिए दुग्धपान और फलाहार कर के आज विश्राम ही करना। कल से तेरा नित्यक्रम चालू हो जाएगा ।’
कुलपति को प्रणाम करके,तापसकुमार के साथ अग्निशर्मा तपोवन के सौन्दर्य को देखता हुआ चलने लगा। वहां पर ऊँचे ऊँचे अशोक वृक्ष थे। बड़ी बड़ी बावड़ियों में लाल कमल खिले हुए थे। स्वच्छ जलराशि पर राजहंस तैर रहे थे। आम्रवृक्षो के झुरमुट पर भंवरो का गुंजन और कोयल की कुक सुनाई दे रही थी । नागवल्ली के पत्तो से लिपटे हुए सुपारी के लंबेलंबे पेड़ तपोवन की शोभा में अभिवृद्धि कर रहे थे । द्राक्षलता के मंडप… और माधवीलता के मंडपो के बीच कदली घर रचाये हुए थे । कदलीगृहो में तापसजन पदमासन वगैरह विविध आसन में बैठकर परमब्रह्म का ध्यान कर रहे थे ।
तोपवन के ओर पंक्तिबद्ध अनेक पर्णकुटीरे थी, ओर दूसरी ओर वर्षाकाल मे निवास करने के लिए ईंट-चुने से बने हुए पक्के मकान थे । कुछ कुछ दूरी पर यज्ञकुंड में से सुगंधित धुंए की रेखाएं आकाश में ऊंचे ऊंचे जा रही थी ।
तपोवन के एक भाग में सैकड़ों गायों का गोकुल था । तापस गायों को घास डाल रहे थे । गायों को स्नान करवा रहे थे, गायों को दुह रहे थे । कुछ गाये अपनी लम्बी जीभ से तापसो को स्पर्श करती हुई… अपना स्नेह प्रदर्शित कर रही थी ।
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