‘आज सुबह में श्री नवकार मन्त्र का ध्यान पूर्ण होने के पश्चात स्वाभाविकतया आत्मचिंतन प्रारंभ हो गया है ।आत्मा का अंनत भूतकाल …. असीम भविष्य …. जन्म … मुत्यु … जीवन इन सब पर विचार चले आ ही रहे है …।’
‘ये तेरे विचार आजकल के कहां है…? बरसों के है । तू बरसों तक ऐसे विचार करती रही है …. और इसी चिंतन ने तो तुझको जीवन जीने का बल दिया है , जोश दिया है । तेरे अति प्रिय विचार है ये सारे ।’
‘चंपा में आने के पश्चात ये विचार कभी – कभार ही आते है । संसार के सारे सुख मिल गये है… ना? पिता के वहां भी सुख और पति के वहां भी सुख ही सुख । पति का पूरा सुख… संपति की भी कमी नही…। स्नेही-स्वजनों का सुख और निरोगी देह का भी सुख है। मेरे पास कौन सा सुख नहीं है ?’
‘एक सुख नहीं है …।’ अमरकुमार ने कसक के साथ कहा ।
‘उस सुख की तमन्ना या इच्छा भी नहीं है भीतर में। वह सुख तो बंधन बन जाता है । वह बंधन नहीं है इसीलिये तो श्रेष्ठ सुख को प्राप्त करने का रास्ता सहजरूप से खुल्ला है ।’
‘ऐसा कैसे ? स्त्री के जीवन में संतान का सुख तो कितना महत्व रखता है ? संतान की इच्छा तो स्त्री में प्रबल होती है ना ?’
‘पर मुझे वैसी इच्छा ही नहीं जगी है ना ?’
चूंकि तेरे में जिनमंदिरों के निमार्ण की , जिनप्रतिमाओं के निमार्ण की इच्छाएं प्रबल है ना ? सुपात्रदान की और अनुकंपादान की इच्छाएं तीव्र है ना ? इन इच्छाओं की तीव्रता ने उस इच्छा को पैदा ही नहीं होने दिया है ।’
‘सही बात है … आपकी । मैं एक एक नवनिर्मित जिनालय देखती हूं , एक एक नयनरम्य जिनप्रतिमा देखती हूं और मेरा रोम रोम नाच उठता है… ह्रदय आनंद से छलक उठता है ।’
‘परमात्मतत्व के साथ तेरी आंतरिक प्रीत जुड़ गई है ना ?’
‘और … अब तो मन उस परमात्मतत्व के साथ अभेद मिलन के लिये तरस रहा है । परमात्मा की आज्ञा का यथार्थ पालन करने के मनोरथ पैदा हो रहे है… कब वह अवसर आये की जिनाज्ञाओं का समुचित पालन कर सकें ।
‘अपन यथाशक्य पालन तो कर ही रहे हैं ना ?’ ‘कितना अल्प ? गुह्स्थजीवन में कितना पालन हो सकता है?
आगे अगली पोस्ट मे ….