मुत्यु जय ने अमरकुमार के समक्ष दांत पीसे । उसने अपने सैनिकों को आज्ञा की :
‘सभी जहाजो पर कब्जा कर लो । इस चोर के तमाम आदमियों को बंदी बना लो … और जेल में बंद कर दो ।’
अमर की तरफ देखकर मुत्यु जय ने कड़े शब्दों में कहा :
‘सेठ, तुम्हें मेरे साथ आना है । हमारे महाराजा विमलयश के पास तुम्हें ले जाया जायेगा ।’
‘महाराजा का नाम तो गुणपाल है ना….?’
‘दूसरे महाराजा हैं विमलयश । महाराजा गुणपाल के दामाद हैं… आधे राज्य के मालिक वे हैं ।’
अमरकुमार पर जैसे की बिजली गिरी । वह बिल्कुल मूढ़ सा हो गया । सेनापति के साथ बलात खिंचता हुआ चला। उसे समझ में नही आ रहा था कि ‘यह सब हुआ कैसे ? चोरी मैंने की नहीं है… न मैंने करवायी है… और चोरी का माल मेरे जहाजों में आ कैसे गया । इस परदेश में मेरा है भी कौन ? यहां मुझे कौन पहचानता है ? मेरी सच्ची बात को भी यहां मानेगा कौन ? मैं तो माल के साथ पकड़ा गया हूं । और चोरी की सजा ? क्या यह राजा मुझे सूली पर लटका देगा ? कारावास में बंद कर देगा ? मेरी बाकी जिन्दगी क्या जेल की सलाखों के पीछे बीतेगी ?
‘विमलयश का राजमहल आ गया था । महल के एक गुप्तखंड में अमरकुमार को बिठाकर मुत्यु जय ने कहा :
‘व्यापारी के भेष में छुपे हुए ठग… तू यही पर बैठ । मैं जाकर महाराज से निवेदन करता हुं कि चोर पकड़ लिया गया है और उसे यहां पर ले आया हूं ।’
‘चोर… ठग…’अमरकुमार जिन्दगी में पहली बार ऐसे कठोर शब्द सुनता है… उसका ह्रदय टुकड़े टुकड़े हो जाता है… उसका सर जैसे फटा जा रहा था… मुत्यु जय कमरे का दरवाजा बंद कर के विमलयश के समक्ष उपसिथत हुआ ।
‘महाराजा आपकी आज्ञा के अनुसार चोर को महल के गुप्त कमरे में बंद कर दिया है । अब क्या करना है ?’
‘जहाजों का सारा माल मेरे राजमहल में लाकर रख दो। जहाजों के आदमियों को ठीक ढंग से रखने के है। वह लोग तो बेचारे निर्दोष और निपराधि है… पर उन्हें रखने है अपने अधिकार में ।