राजसभा भरी थी ।
महाराजा गुणपाल के समीप के सिंहासन पर ही विमलयश बैठा था। राजसभा की कार्यवाही रोजाना की तरह चल रही थी। इतने में द्वारपाल ने आकर महाराजा को प्रणाम कर के निवेदन किया :
‘महाराजा , एक परदेशी सार्थवाह आपके दर्शन के लिये आना चाहता है ।’
‘उन्हें आदरपूर्वक भीतर ले आओ ।’
महाराजा ने आज्ञा दी। द्वारपाल नमन कर पिछले कदम वापस लौटा और राज्यसभा में एक तेजस्वी गोरवदन युवान सार्थवाह ने प्रवेश किया ।
विमलयश की निगाहें सार्थवाह के चेहरे पर गिरी … और वह चोंक उठा …’ओह…यह तो मेरे स्वामीनाथ । अमरकुमार। आ गये… मनिशंख मुनि का वचन सत्य सिद्ध हुआ….।।’ विमलयश ने अपने मनोभावों को चेहरे पर आने नहीं दिया। सार्थवाह ने आकर महाराज को प्रणाम किया और रत्नजड़ित थाल में लाई हुई कीमती जोहरात की भेंट – सौगात प्रस्तुत की । महाराजा ने आदरपूर्वक नजराना स्वीकार किया और सार्थवाह को राजसभा में उचित स्थान दिया । सार्थवाह ने विनम्र स्वर में निवेदन किया :
‘महाराजा , मैं चंपानागरी का सार्थवाह कर के व्यापार कर रह हूं… आज सबेरे ही बेनातट के किनारे पर मेरे बतीस जहाज लेकर आ पहुँचा हूं… आपकी महरबानी होगी तो यहां पर व्यापार करने की मेरी इच्छा है ।’
‘अवश्य … सार्थवाह। मेरे राज्य में तुम बड़ी खुशी से व्यापार कर सकते हो ।’
‘आपकी बड़ी कुपा हुई महाराजा , मेरे पर ।’
विमलयश तो कभी का राजसभा में से निकलकर अपने महल में पहुँच गया था। उसने अपने एकदम विश्वसनीय आदमियों को बुला लिया और गुप्त मंत्रनाखण्ड में जाकर उनसे कहा :
‘तुमने आज राजसभा में आये हुए सार्थवाह को देखा है ना ?’
‘जी हां …’
‘समुद्र के किनारे पर उसके बतीस जहाज खड़े है…तुम्हें यहां से मेरे नाम से अंकित सभी कीमती अलंकार ले जाना होगा… और उन जहाजों में इस ढंग से छुपा देना की किसी को जरा भी संदेह न आये न ही मालूम हो सके… इतना कार्य कर के मुझे समाचार देना ।’
‘जैसे आपकी आज्ञा , कार्य हो जायेगा ।’
विमलयश ने आदमियों को तिजोरी में से अलंकार निकाल कर दे दिये ।
अलंकारों को अपने कपड़ों में छुपाकर वह राजपुरुष समुद्र के किनारे पर गये ।
आगे अगली पोस्ट मे…