‘स्वामिन आपकी बात सच है । मुनि एकाग्रचित होकर ध्यान कर रहे है…. पर इन्हें विचलित करने का कार्य हमारे लिये सरल होता है ! रूपवती को देखकर बड़े बड़े जोगी-जात और साधु सन्यासी भी चंचल हो जाते है । कितने ही उदारण मिलते है !’
‘देवी, चंचल और चलित हो जाने वाले वे जोगी-जति और होंगे ! ये महामुनि तो स्वर्ग में से रंभा या उर्वशी उतर आये तो भी विचलित नही होने के !’
‘ओहो ! अरे, स्वर्ग की रंभा की जरूरत क्या है ? जमीन पर ही रंभा भी इन्हें विचलित करने को पर्याप्त है । आपको देखना है तो देखो, मै इन्हें चुटकी बजाते हुए चलित कर देता हूं !’
‘देवी, नादानी मत करो… ये तो योगी है योगी ! योगी की परख नही की जाती । इसमें कुछ सार नही निकलेगा…. नाहक अनर्थ हो जायेगा !’
‘अरे, देखिये ! मै अभी सार निकालती हूं….!’
रेवती ने मुनि के सामने गीत और नृत्य करना प्रारंभ किया । मुनि के समीप जाकर, सन्मुख जाकर नजरों के तीर फेंकने लगी…।उत्तेजित बनाये वैसे हावभाव प्रदर्शित करने लगी । काफी प्रयत्न किया मुनि को रिझाने का ! दो घड़ी, चार घड़ी बीत गई… फिर भी मुनिराज जरा भी डिगे नही !
रेवती ने मुनिराज के हाथ में से रजोहरण ले लिया । मुहपत्ति ले ली । और मुनिराज की हँसी मजाक उड़ाने लगी….। सताने लगी…। उनसे घृणा व्यक्त करने लगी… और छह घड़ी बीत गई…बारह बारह घड़ी बीत गई (करीबन पाँच घंटे का समय ) वह रेवती मुनि को परेशान करती रही… फिर भी मुनि तो निश्चल रहे… निष्प्रकंप रहे, तब राजा ने जाकर पुनः रेवती से कहा :
‘रेवती, अब बस कर ! यह कोई ऐरे-गेरे साधु नही है, ये तो आत्मध्यानी…. अपूर्व को धारण करनेवाले योगीपुरुष है ।’
रेविती भी थक गई थी । अपनी हार से उसका मन लज्जित हो गया था । मन ही मन उसे पछतावा हो रहा था । इतने में महामुनि ने अपना ध्यान पूरा किया । राजा ने भावपूर्वक वंदना की…और मुनिचरणो में बैठ गया । रानी रेवती भी राजा के पास जाकर चुप-चाप बैठ गई । मुनिराज विशिष्ट ज्ञानी थे । उन्होंने राजा-रानी के उत्तम आत्मद्रव्य को देखा….परखा । उन्हें न तो द्वेष हुआ नही किसी तरह की नाराजगी थी ! समता के सागर वैसे महामुनि ने राजा-रानी को धर्म का उपदेश दिया
आगे अगली पोस्ट मे….