एक जहाज यक्षद्विप की ओर ही आ रहा था । सुरसुन्दरी का दिल हर्ष से उछलने लगा ।
एकाध घटिका में तो जहाज किनारे पर आ पहुँचा। फटाफट आदमी किनारे पर उतर कर आ गये । उन्हें मीठा जल भरना था ।
उन लोगों ने दूर खड़ी सुरसुन्दरी को देखा। देखते ही रह गये… वे जहाज में से उतर रहे अपने मालिक के पास स्तंभ दौड़ते हुए गये और कहा : ‘सेठ, वहां देखिये। ‘ सुरसुन्दरी की ओर इशारा करते हुए उन्होंने श्रेष्ठि का ध्यान खींचा । श्रेष्ठि की द्रष्टि सुरसुन्दरी पर गिरी । वह भी देखता ही रह गया । आदमियों ने पूछा :
‘ यह कौन होगी इस निर्जन डरावने द्विप पर ?’
‘इस द्विप की अधिष्ठायिक देवी लगती है । तुम चिंता मत करो …. मैं उस देवी के पास जाता हूं । तुम अपना काम करो ।’
श्रेष्ठि सुरसुन्दरी के पास आया । साष्टांग प्रणिपात किया , दो हाथ जोड़कर , सर झुका कर खड़ा रहा ।
सुरसुन्दरी समझ गयी थी कि ‘यह व्यापारी मुझे देवी मानकर नमस्कार कर रहा है ।’ उसने स्पष्टता की ‘महानुभाव, मैं कोई देवी नहीं हूं … मैं तो एक मानव स्री हूँ ।’
‘तो फिर इस द्विप पर कहां से आई आप, और अकेली क्यों है ?’
‘मैं यहां पर मेरे पति के साथ आई थी । हम सिंहल द्विप जाने के लिये निकले थे । पर मेरा पति मुझे यहीं सोयी हुई छोड़कर चले गये । इसलिये मैं यहां पर अकेली हो गयी हूँ । मैं किसी ऐसे जहाज की खोज में हुं की जो जहाज सिंहल द्विप की ओर जाता हो या फिर चंपानगरी की तरफ जाने वाला कोई जहाज मिल जाये ।’
‘तुम यदि मेरे साथ आना चाहो तो मैं तुम्हें सिंहल द्विप ले चलूंगा ।’ श्रेष्ठि सुरसुन्दरी के रूप को अपनी भूखी नजरों से पी रहा था , पर उसने अपनी वाणी में संयम रखा … शालीनता का प्रदर्शन किया । सुरसुन्दरी को साथ ले चलने की बात , उसने बड़े सलीके से रखी।
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