‘कुमार… अभी तू महाजन की शक्त्ति से परिचित नहीं है । इसलिए ऐसे कटु और अयोग्य वचन बोल रहा है । महाजन चाहे तो राजा को राज्यसिंहासन पर से नीचे उतार सकता है । राजा को देश निकाल की सजा दे सकता है… ऐसे महाजन का तू क्या कर लेगा ? क्या औकात है तेरी ?’
‘बेटा, महाजन के विरुद्ध एक भी शब्द ज्यादा मत बोलना… वर्ना अनर्थ हो जाएगा ।’ रानी ने गुणसेन के सिर पर हाथ रखते हुए उसे रोका ।
‘सच बात कहनेवाले पर गुस्सा करना , यह आदमी की कमजोरी है। तू और तेरे मित्र उस बेचारे ब्राह्मणपुत्र पर अत्याचार गुजारते हो, यह सही बात है ना ?’ महाराजा ने कुमार से सीधा स्पष्ट सवाल किया :
‘हम खेलते हैं । उसके साथ खेलने में हमें मजा आता है… इससे ज्यादा मुझे कुछ भी नहीं कहना है ।’
‘और, मैं कहता हूं कि यह खेल बंद करना होगा, तो?
महाराजा ने कुमार के सामने-उसके नजदीक जाकर कड़क होकर कहा । परंतु गुणसेन मौन रहा । उसने अपनी निगाहें जमीन पर स्थिर कर दी ।
महाराजा वहां से अपने शयनखंड की ओर चले गये । माता और पुत्र उन्हें जाते हुए देखते रहे ।
रानी कुमुदिनी कुमार को अपने कक्ष में ले गई । उसे अपने पास पलंग पर बिठाकर उसके सिर पर प्यार से हाथ फेरने लगी । कुछ देर ख़ामोशी में घुल गई । आखिर रानी ने ख़ामोशी को तोड़ते हुए कहा :
‘बेटा, तेरे पिताजी के सामने तुझे इस तरह नहीं बोलना चाहिए था । तूने उनको नाराज किया, यह मुझे अच्छा नहीं लगा ।’
‘मेरे पिताजी को मुझ पर प्रेम नहीं ।’
‘गलत बात है ।’
‘बिल्कुल सही बात है, वर्ना लोगों की बातें सुनकर वे मुझे इस तरह डांटते नहीं ।’
‘लोगों की बातें सुनकर नहीं कहा है । महाजन की बात सुनकर कहा है । और महाजन की बात को सुनना ही पड़ता है…। महाजन को नजरअंदाज नही किया जा सकता । महाजन को संतोष देना ही होता है ।’
तू भी क्या…मां । पिताजी के पक्ष में बैठ गई ?’
नहीं, तू खुद जनता है… कि हर बात में तेरा पक्ष लेकर मैं तेरे पिताजी को अप्रिय हो गई हूं। फिर भी मुझे इसकी परवाह नहीं है । मुझे चिंताह तुम पिता-पुत्र के संबंध की। तुझे उनकी बात सुन लेनी चाहिए थी । सामने जवाब नहीं देना चाहिए था। और बात तो मैं खुद ही सम्भाल लेती ।’
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