दोपहर के भोजन का समय हो गया था । कुमार गुणसेन महाराजा के साथ भोजन करना पसंद नहीं करता था। महाराजा भोजन कर ले बाद में ही वह भोजन करने के लिए आता था। पुत्र को खाना खिलाकर रानी भोजन करती थी ।
परंतु आज अचानक कुमार रनिवास में आ पहुँचा । वहां महाराजा को देखकर वह रनिवास के द्वार पर ही ठिठक गया। महाराजा ने कुमार को देखा… पिता – पुत्र की दृष्टि मिली । महाराजा ने कहा :
‘आ, कुमार । अच्छा हुआ तू आ गया… चलो, भोजन का समय हो गया है… हम आज साथ साथ ही खाना खाएंगे ।’
कुमार मना कर नहीं सका। महाराजा ने पूछा नहीं था , सीधी आज्ञा ही की थी ।
रानी कुमुदिनी का दिल दहल उठा… ‘जरूर आज बाप-पेटे के बीच झगड़ा होने का ।’
पिता-पुत्र भोजन के लिए पास-पास ही बैठ । कुमुदिनी ने दोनों की थाली में भोजन परोसा । भोजन परोसते परोसते वह बारबार महाराजा के सामने देख रही थी, परंतु महाराजा की निगाहें तो खाने की थाली पर स्थिर थी । वे सोच रहे थे ‘खाने से पहले बात नहीं करना है… भोजन के बाद बात करूंगा । खाली पेट डांट को पचा नहीं पाता । भरा हुआ पेट ही सच्ची वात को पचा सकता है ।
पिता-पुत्र ने मौन रहकर भोजन किया । कुमार ने हाथ धोये कि महाराजा ने कहा : ‘कुमार, मुझे तुझसे एक बात कहनी है ।’ कुमार खामोश रहा । इसलिए महाराजा ने उसके सामने देखा । कुमार ने रानी के सामने देखा ।
‘कुमार, तू और तेरे मित्र, उस ब्राह्मणपुत्र अग्निशर्मा को पीड़ा देते हो… परेशान करते हो… यह सही बात है ?’
‘पिताजी, हम उसके साथे खेलते है… हमें मजा आता है । खेलने में तो हंसना भी होता है… कभी रोना भी आता है ।’
‘बेटा, ऐसे खेल नहीं करने चाहिए जिसमें औरों को सताया जाता हो… तुम उस अग्निशर्मा को उत्पीड़ित करते हो… उसे संत्रास देते हो ।’
‘चूंकि वह सब करने में हमें मजा आता है। जवानी की दहलीज पर पैर रखनेवाला गुणसेन, पिता की मर्यादा उलांध कर बोल बैठा, और आसन पर से खड़ा हो गया ।
‘औरों को संत्रास देने में तुझे मजा आता है ? मैं कहूंगा…’तुझे पीड़ा देने में मुझे आनंद आता है’…. तो तू मान लेगा मेरी बात ?’
कुमार खड़ा हुआ, कुछ देर मौन रहकर , उसने रानी से पूछा :
‘मां, यह बात पिताजी तक लाया कौन ?’
‘महाजन ।’ रानी के मुँह से निकल गया ।
‘मै उन महाजन के बच्चों को देख लूंगा ।’हवा में मुठ्ठी उछालता हुआ कुमार दहाड़ा ।
आगे अगली पोस्ट मे…