महाराजा पूर्णचन्द्र खड़े हो गये सिंहासन पर से , और कमरे में टहलने लगे ।
पुत्र तुम्हें प्रिय है… वैसे मुझे भी प्यारा है, परंतु उसे झूठा और बहुत ज्यादा प्यार – दुलार देने के पक्ष में मैं नहीं हूं। संतानों को इस तरह दुलारने से माता – पिता स्वयं ही उसे अयोग्य एवं कुपात्र बनाते हैं ।’
एकलौता राजकुमार राजा-रानी की आंखों का तारा था। रानी कुमुदिनी कुमार को बहुत ज्यादा लाड़-प्यार में रखती थी। गलत काम करते हुए कुमार को वह कभी टोकती या रोकती नहीं थी। राजा कभी कुमार को डांटते तो रानी कुमार का पक्ष लेकर उसका बीच-बचाव करती थी। इसलिए राजा ने सीधे कुमार को कुछ भी कहना बंद कर दिया था। जो भी कहना होता वह रानी को ही कहते थे। फिर भी रानी कुमार के विरुद्घ कुछ भी सुनने को तैयार नहीं थी। रानी पर राजा का यह ताना तो था ही – ‘तू कुमार को बिगाड़ रही है … उसके व्यक्त्तित्व को छिछला बना रही है…।’ रानी को यह इल्जाम कांटे की भांति चुभता था ।
‘तू कुमार को रोकेगी क्या ब्राह्मणपुत्र को सताने से ?’
‘मैं उससे पुछुंगी ।’
‘और वह सताता है… यह तय होने पर उसे सजा करेगी ?’
‘सजा करने का कार्य मेरा नहीं है ।’
‘वह कार्य मेरा है ना ? ठीक है, मैं शिक्षा करुं… फिर तू नाराज मत होना ।’
‘आप शिक्षा करोगे और राजकुमार रूठकर भाग गया तो ? एकलौते बेटे पर भी तुम्हें दया नहीं आती है ?’ कुमुदिनी रो पड़ी । इस तरह रोने की उसकी आदत थी। महाराजा इस आदत से बखूबी परिचित थे, इसलिए रानी के आंसूओं का उन पर कुछ असर नहीं हुआ ।
‘भागकर कहां जाएगा ? जहां जाएगा मैं वहां से उसे पकड़ मंगवाऊंगा । पर वह भाग जाने की घुड़की देकर, स्वच्छंद बनकर प्रजा को दुःख दे, वह मैं सहन नहीं करुंगा ।’
‘तुम्हें उस बदसूरत ब्राह्मणपुत्र की दया आती है, पर तुम्हारे खुद के बेटे की दया नहीं आती ?’
‘दया निर्दोष पर आती है… दोषित या अपराधी पर नहीं । ब्राह्मणपुत्र निरपराधी है… इसलिए उस निर्दोष पर दया आती है। निर्दोष – बेगुनाह प्रजा को सतानेवाला राजा बनने के लिए लायक नहीं है ।’
आगे अगली पोस्ट मे…