महामंत्र का स्मरण या श्रवण करते वक्त यों सोचना विचारना चाहिए कि : ‘मैं सवर्गी अमूत से नहाया हूँ…. चूंकि परमपुण्य के लिये कारणरूप परम्मगलमय यह नमस्कार महामन्त्र मुझे मिला है । अहो । मुझे दुर्लभ तत्व की प्राप्ति हुई । प्रिय का सहवास मिला । तत्व की ज्योत जली मेरी राह में । सारभूत पदार्थ मुझे प्राप्त हो गया । आज मेरे कष्ट दूर हो चले । पाप दूर हठ गये… मैं भवसागर को तैर गया । ‘
हे यशसिवनी सुन्दरी । समतारस के सागर में नहाते-नहाते उल्लसित मन से नमस्कार मंत्र का स्मरण करने वाली आत्मा पापकर्मों को नष्ट करके सदगति को पाती है । देवत्व को प्राप्त करती है । परम्परा से आठ ही भवों में सिद्धि-मुक्ति को प्राप्त कर लेती है । इसलिये सुरसुन्दरी । हमेशा-प्रतिदिन 108 बार इस महामंत्र का स्मरण करना, मत भूलना कभी। जो जीवात्मा हमेशा 108 बार इस मंत्र का जाप करता है, उसे न तो कोई डायन वगैरह का उपद्रव होता है, नहीं कोई अन्य देवी उपद्रव उसे सताते हैं।
यदि जन्म के वक्त यह महामंत्र सुनने को मिलता है तो जीवन में यह मंत्र ऋद्धि देने वाला होता है और मुत्यु के वक्त यदि यह महामंत्र सुनाई दे तो सदगति होती है आत्मा की । आपत्ति या संकट के समय यदि यह मंत्र गिना जाये तो संकट टल जाते है । आपत्तियां दूर हो जाती है । ऋद्धि के समय यदि इसे गिना जाये तो ऋद्धि का विस्तार होता है ।
पाँच महाविदेह-क्षेत्र में की जहां शास्वत सुखमय समय होता है , वहां पर भी इसी नमस्कार महामंत्र का जाप किया जाता है।।
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