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अपूर्व महामंत्र – भाग 1

दूसरे ही दिन सुरसुन्दरी साध्वीजी सुव्रता के उपाश्रय में पहुँच गयी। उसने उपाश्रय में प्रवेश किया और साध्वीजी के चरणों में मस्तक झुका कर वंदना की।
‘धर्मलाभ ।’ साध्वीजी ने दाहिना हाथ ऊँचा कर के आशीवार्द दिया। सुरसुन्दरी , साध्वीजी की इजाजत लेकर विनयपूर्वक बैठकर अपना परिचय देते हुए बोली:
‘हे पूज्या, आपके दर्शन से मुझे अतीव आनन्द हुआ है। मेरा नाम सुरसुन्दरी है। मेरे पिता राजा रिपुमर्दन है। मेरी मां का नाम है रतिसुन्दरी । मेरे माता-पिता की प्ररगा से मैं आपके पास धर्मबोध प्राप्त करने के लिये आई हूँ। नगरशेष्टि धनावह की धर्मपन्ति धनवती देवी ने मुझे आपका परिचय दिया और आपका स्थान बताया।’
‘हे पुन्यशीले। धन्य है तेरे माता पिता को कि जो अपनी पुत्री को चोसठ कलाओं में पारंगत बनाकर भी उसे धर्मबोध देने की इच्छा रखते हैं और धन्य है उस पुत्री को जो माता-पिता की इच्छा को सहर्ष स्वीकार के धर्मबोध पाने को प्रयत्नशील बनती है। पुर्वकुत महान पुण्यकर्म का उदय हो तब ही कहीं ऐसे संस्कारी सुशील और संतानो के आत्महित की चिंता करनेवाले माता पिता मिलते हैं और क्षेष्ठ पुण्य कर्म का उदय होने पर ऐसे विनीत,विनम्र और बुद्धिशाली संतान मिलती है। सुरसुन्दरी, तू यहां नियमित आ सकती है। तुझे यहां तीर्थंकर परमात्मा द्वारा कथित धर्मतत्वो का बोध मिलेगा।।

आगे अगली पोस्ट मे…

नई कला – नया अध्य्यन – भाग 9
April 14, 2017
अपूर्व महामंत्र – भाग 2
April 14, 2017

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