व्यापारी ने हँसते हुए कहा । उसके हास्य में धूर्तता थी । सुरसुन्दरी सावधान हो गयी ।
‘बातें तो बाद में करने की ही है … पहले तू खाना खा ले ।’
‘नहीं , मुझे खाना नहीं खाना है ।’
‘कब तक तू इस तरह भूखी रहेगी ?’
‘जब तक रह सकुंगी तब तक ।’ सुरसुन्दरी ने नीची नजर रखते हुए जवाब दिया ।
‘क्यों भूख से मर रही हो ? देख , तुझे पसन्द हो वैसा भोजन है , फिर भी तुझे यदि ये चीजें पसन्द न हो तो मैं दूसरी चीजें बनवा दू पर तुझे भोजन तो करना ही होगा ।’
सुरसुन्दरी को क्षुधा तो लगी ही थी । व्यापारी ने काफी आग्रह किया तो उसने भोजन कर लिया । उसकी थकान दूर हुई । फानहान चला गया । सुरसुन्दरी को रहने के लिये एक अलग कमरा दे दिया था फानहान ने ।
सुरसुन्दरी एक स्वच्छ जगह पर पद्धमासन लगाकर बैठ गयी और श्री नमस्कार महामंत्र का जाप चालू किया । एक प्रहर तक वह जाप करती रही ।
जहाज बेनातट नगर से रवाना हो चूका था । समुद्र यात्रा चालू हो गयी थी । सुरसुन्दरी बारी के पास जाकर खड़ी रही : यह वही महासागर था जिसमें वो कूद पड़ी थी । जिसमें धनजंय ने अपने जहाजों के साथ जलसमाधि ली थी । सुरसुन्दरी के लिये जैसे वह घटना एक सपना हो चुकी थी । वह ध्य्य आँखों के आईने में उभरते ही वो काँप उठी।
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