मानव का मन कितना अजीबो-गरीब है। कभी वह कामपुरुषार्थ के पीछे पागल बन जाता है तो कभी अर्थ पुरुषार्थ के लिये उतावला हो जाता है। कभी फिर ऐसा भी मोड़ आ जाता है कि अर्थपुरुषार्थ एवं कामपुरुषार्थ दोनों को छोड़कर सर्वस्व त्याग करके मनुष्य धर्मपुरूषार्थ में लीन-तलालिन हो जाता है । अमरकुमार के दिल में अर्थपुरुषार्थ की कामना दिन-ब-दिन प्रबल…