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नारी तू नारायणी तूझे शत् शत् प्रणाम

1911 से भले ही विश्व महिला दिवस मनाते आये हो मगर आर्य संस्कृति तो युगो से श्रवण वदि अमावस्या को अमृत दिवस के रूप मे मानता आया है ।
स्त्री के जीवन मे वो अनेक रूपो को धारण करती है। और हर रूप से इस समाज पर उपकारो की वर्षा करती है।
अरे घर के अंदर आधी रोटी हो और खाना खाने बैठे तो ” मेने खाना खा लिया है अब तू खाले बेटा” यह शब्द बोलने वाली माँ ही हो सकती है। घर मे आधी रोटी हो और बाहर से आये और देखकर यह बोले कि “मै तो खाना खा कर आया हू अब तू खाले बेटा” यह शब्द बोलने वाला पिता ही हो सकता है। पिताजी भुखे है। उनकी आखों की भाषा और दिल के भाव को समझने वाला अगर कोई होता है तो वो सिर्फ पुत्री ही होती है ।
बहन के रूप मे वह हमेशा भाई के लिए ढाल बनकर के खडी होती है। घर मे अगर बहन होती है तो भाई की सारी शरारत माफ हो जाती है। अपने घर से भी ज्यादा अगर उसे किसी की चिंता होती है तो वह घर होता है भाई का। भाई के लिए वह बलिदान देने के लिए भी तैयार होती है।
वह इन्सान को ऊर्जामय और उल्लास से रखती हो तो वो इसका स्वरूप है सखी का। यह सखी के रूप मे हर आपत्ति मे साथ देने के लिए खडी होती है।
घर की शोभा वह गृहणी से होती है। गृहणी के बिना घर वो घर नही होता है। संवेदनशील सेवा समर्पिता की आकृति वो पत्नी के रूप मे समाहित हो जाती है। घर के हर सदस्य का ध्यान रखने का दायित्व यह निभाती है। परिवार के हर सदस्य के दुःख मे दुःखी होती है। सभी की समस्याओ का समाधान करने का प्रयत्न करती है। इस रूप मे यह खुद को भूलकर दुसरो के लिए जीने लगती है।
” पिण्ड को चैतन्य रूप बना दे वो माँ होती है।”
करूणा की गंगा तो वात्सल्य का झरना वो माँ होती है ।
माँ के रूप मे ये भगवान से भी महान होती है।
कवि ओमव्यास की वो पंक्तिया वह माँ का परिचय बताती है।
” माँ कलम है दवात है स्याही है माँ
माँ परमात्मा की स्वयं एक गवाही है माँ”
माँ के रूप मे नारी फुल से भी कोमल तो वज्र से भी कठोर होती है ।
माता के रूप मे त्रेलोकनाथ की भी जनेता है।
” पश्चिमी संस्कृति भोग्या है
आर्य संस्कृति पुज्या है।”
इस आर्य संस्कृति मे नारी वो सदा पुज्नीय वंदनीय है।
अन्त मे
” ऐसी नारी शक्ति को प्रणाम करता हूँ
अपनी वाणी को यही विराम देता हूँ।”

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