सेवा मानव का धर्म है। सेवा मानव का सच्चा कर्म है। सेवा मानव का दयालु मन है। सेवा मानव का मनन है। सेवा दुसरो के लिए घिसाने वाला तन है।
सेवा संस्कार है। सेवा पिडीत मानव की पुकार है। सेवा निराधार की आधार है। सेवा अहं का आकार है। सेवा होती है वहा प्रेम का बरसात अनराधार है। और सेवा मानव पर मानव का करता प्यार है।
सेवा जख्म पर लगता मलम है। सेवा दया के लिए उठाई हुई कलम है। सेवा दीन दुखियो के लिए दवा है। और सेवा मे दोनो आँखे नम है। सेवा भूखे का अन्न है। प्यासे का जल है सेवा। सेवा निर्मल है। सेवा भाग्य का भण्डार है। सेवा गौरव का मेरू है।
सेवा होती है वहा स्वार्थ नही होता है। सेवा होती है वहा लालच नाम का कोई पदार्थ नही होता सेवा परमार्थ है। सेवा अर्थ भी है। सेवा अंधकार मे रहीत इन्सान का सूरज है। सेवा सुगंध है सेवा संबंध है। सेवा दुसरो की पीडा को हमरा बना लेने की जल्दबाजी है। सेवा आफतो के जंगल मे उगी हुई फूलो की वेल है। सेवा वो है जो मानव को भगवान बनाती है। सेवा जीवन को धन्य बनाती है। सेवा व्यास पीठ पर होती कथा है। सेवा परोपकार की गाथा है। सेवा डूबते का सहारा है। सेवा एक सुंदर नजारा है। सेवा इच्छा को पूरा करता सितारा है।
सेवा वो पथ प्रदर्शक है। सेवा वो पथ प्रकाशक है। सेवा वो पथ प्रभावक है। सेवा से ही मानव प्यारा है। सेवा हर दर्द की दवा है। सेवा हर मुश्किलो की दवा है।
सेवा जिंदगी है सेवा वो जीवन है। सेवा ही मानव को धन्य करती है।
हर वस्तु का स्यंम का धर्म होता है। सभी अपने धर्म के अनुसार ही कार्य करते है। नदी उसके धर्म के अनुसार सतत् बहती है चट्टानो को भेदती हुई वह चलती जाती है। वह सबको निस्वार्थता के साथ पानी पिलाती हुई चलती जाती है। कभी किसी को ना नही कहती है कभी किसी के सामने शर्त नही रखती है। कोई अच्छा इन्सान आये या खराब इन्सान
कभी किसी को ना नही कहती है कभी किसी के सामने शर्त नही रखती है। कोई अच्छा इन्सान आये या खराब इन्सान वह अपना धर्म निभाती है और समुद्र मे विलीन हो जाती है ।
एक वृक्ष भी अपना स्वंय का धर्म खुद क्षमता के अनुरूप निभाता है। वह राहगीरो को छाया देता है, फल देता है। वह वातावरण को स्वच्छ रखता है। खुद नष्ट हो कर स्वयं का अस्तित्व मिटाकर के मनुष्य को ईधन देता है। कभी किसी को ना नही कहता है, अच्छे खराब मे भेद नहीं करता है। अपना धर्म ईमानदारी से निभाता है । और अंत मे मनुष्य के अंतिम संस्कार मे जल भी जाती है ।
इसी तरह नदी, वृक्ष, सूरज, चंद्र सभी अपना अपना धर्म निभाते है। कोई अपने धर्म से विमुख नही होता है। प्रकृति हर क्षण अपने धर्म को निभाने मे तत्पर रहती है ।
हम मनुष्य है और हमारा मुख्य धर्म को वाधर्म है। ईश्वर ने मानव को सेवा करने का धर्म सौपा है क्या आज मानव प्रकृति की तरह स्यंम का धर्म निभा रहा है? अरे हम खुद मानव के रूप मे स्यंम का धर्म निभा रहे है या नही इसका फैसला हमे खुद को करना है और हम किस मार्ग पर चलते है यह देखना है ।।कभी किसी को ना नही कहती है कभी किसी के सामने शर्त नही रखती है। कोई अच्छा इन्सान आये या खराब इन्सान वह अपना धर्म निभाती है और समुद्र मे विलीन हो जाती है ।
एक वृक्ष भी अपना स्वंय का धर्म खुद क्षमता के अनुरूप निभाता है। वह राहगीरो को छाया देता है, फल देता है। वह वातावरण को स्वच्छ रखता है। खुद नष्ट हो कर स्वयं का अस्तित्व मिटाकर के मनुष्य को ईधन देता है। कभी किसी को ना नही कहता है, अच्छे खराब मे भेद नहीं करता है। अपना धर्म ईमानदारी से निभाता है । और अंत मे मनुष्य के अंतिम संस्कार मे जल भी जाती है ।
इसी तरह नदी, वृक्ष, सूरज, चंद्र सभी अपना अपना धर्म निभाते है। कोई अपने धर्म से विमुख नही होता है। प्रकृति हर क्षण अपने धर्म को निभाने मे तत्पर रहती है ।
हम मनुष्य है और हमारा मुख्य धर्म को वाधर्म है। ईश्वर ने मानव को सेवा करने का धर्म सौपा है क्या आज मानव प्रकृति की तरह स्यंम का धर्म निभा रहा है? अरे हम खुद मानव के रूप मे स्यंम का धर्म निभा रहे है या नही इसका फैसला हमे खुद को करना है और हम किस मार्ग पर चलते है यह देखना है ।।