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धर्म यानी क्या?

एक संत अपने त्याग, साधना और सरलता से सभी लोगो में बड़े ही पूजनीय बन गए थे। अनेक लोग उनके पास सिखने आते थे।

सरलता और सहजता का गुण उन्होंने आत्मसात किया था। जिससे एक आदमी बड़ा प्रभावित हुआ और उनका शिष्य बन गया। और गुरु सेवा में तल्लीन हो गया। पर उसके मन में एक प्रश्न रोज उठता था। पर वह गुरु से पूछ नही पाया।

गुरु की सेवा वह इतनी करता था की सेवा के गुण से वह प्रिय शिष्य बन गया। पर उसके मन में एक प्रश्न रोज उठ रहा था। वह यहाँ पर कुछ सिखने आया, जानने आया था। पर उसने न ही धर्म को सिखा समझा और जाना।

और वह इसी कारण से सेवा करते करते उब गया था। अब उसने एक दिन बड़ी हिम्मत करके गुरु से पूछा- गुरुदेव में आपसे एक प्रश्न पुछू क्या?
गुरुदेव ने कहाँ- वत्स तुम्हारे जितने प्रश्न हो सारे प्रश्न पूछो।

गुरुदेव में आपके पास धर्म का शिक्षण लेने आया था। परन्तु इतने साल हो गए आपने मुझे धर्म की बारखड़ी भी नही बताई। ऐसा कैसे? आपकी इस अवकृपा का कारण?

शिष्य की बात सुनके महात्मा स्मित करने लगे। फिर उन्होंने स्मित के साथ जवाब दिया- वत्स तेरा प्रश्न वाजिब है। परन्तु क्या तू मेरे पास से धर्म का शिक्षण नही पाया? तो मुझे कहने दे तू अभी भी तू धर्म से अनभिज्ञ है।

सुबह जब तू मेरे लिए नवकारसी (नास्ता) लेकर आता था तो मै कभी भी यह पूछने से नही चुकता की तूने नास्ता किया है? तू मेरे लिए पानी लाता है तो मै अवश्य पूछता हूँ की तूने पानी पिया?। जब तू मेरे लिए आहार लाता है तो में अवश्य तुझे पूछता हु की तूने आहार वापरा?। जब तू मुझे वंदन करता है तो मै तेरे गुणो का गान करके तुझे वंदन करता हूँ। फिर तेरे वंदन को स्वीकारता हूँ। मै तेरे सारे अच्छे कार्यो की प्रशंसा करता हूँ।

धर्म में अच्छे और बुरे कार्यो का विवेक ही है। और धर्म रोज के कार्यो में आ जाना चाहिए। धर्म वह जीवन से अलग नही है। धर्म वही जीवन की राह है ।।

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