एक महात्मा थे। उनका नाम था मस्तराम ऐकांतसेवी। खुद की मस्ती से ईश्वर की भक्ति करते।निजानंद मे जीते जब इच्छा होतीे वहा बैठते। जहाँ इच्छा होती वहा घुमते और गाँव के लास्ट मे एक झाड के नीचे रहते थे।
एक बार गांव के चोराये पर बराबर बीच मे लंबे होकर पेड थे। और राजा की सवारी वहाँ से निकलने वाली थी। सवारी के आगे चल रहे सैनिको ने रास्ते मे सोये महात्मा को देखा और महात्मा के पास दौड कर गये और बोले- फकीर बाबा राजा की सवारी आ रही है। आप बीच रास्ते से साइड मे हो जाओ।
महात्मा ने कूछ सुना नही और खुद की मस्ती मे मस्त रहने लगे म। वो सोय रहे और सवारी बीच रास्ते मे अटक गई। फिर राजा ने सबसे पुछा क्या हुआ? सवारी आगे क्या नही बढ रही है? सेवक ने जवाब दिया- महाराज! आगे बीच रास्ते मे एक मस्त मौला फकीर बैठा है और रास्ते से हटने का नाम नही लेता है और कोई जवाब भी नही देता है।
मस्त मौला फकीर की निडरता और निस्पृहता से राजा प्रभावित हो गये। मस्त मौला फकीर हे मिलने राजा खुद रथ से नीचे उतर कर के उसके पास गये और साधु के पास जाकर उन्होंने प्रणाम किया और सत्संग किया। थोडी देर बाद राजा ने एक सोना मोहर भेट दी। फिर तो रोज क्रम चलता रहा। राजा आते साधु के पास सत्संग करते और राजा जब भी सत्संग के लिए जाते तब कुछ न कुछ दक्षिणा देकर आते यह क्रम चलता रहता।
कुछ महीनो बाद राजा का प्रसंग आया। और फिर से सवारी निकली। फिर सेवको ने खबरदी की राजा की सवार आ रही है रास्ते से साइड हो जाओ। तभी देह लंबाकर पडे साधु झटपट खडे हो कर साइड मे हो गए। और राजा की सवारी वहा से निकल गई।
सवारी निकल जाने के बाद मे साधु के मन मे विचार आया कि ऐसा क्या हुआ? मेरा मन क्या बदल गया? खुद ने अपने जात का साथ आत्मसंवाद किया। बाद मे कितना ही मनोमंथन करने के बाद समझाया की सतत् मिल रही दक्षिणा से और दान के कारण हे मेरी निस्पृहता का नाश हो गया। और बहुत मनोमंथन के बाद साधु ने द्रढ निश्चय के साथ खडा हुआ और खुद के पास ऐकट्टा धन सभी दान मे दे दिया। और की भेंट नही स्वीकार ने का निश्चय किया।
उसके बाद थोडे दिन और हुए और राजा की सवारी निकली। तब साधु पैर फैलाकर पड़े हुए थे। राजा ने आकर पूछा फकीर बाबा वापिस क्या हुआ? फिर पैर क्यो फैलाए? साधु ने हंसकर जवाब दिया हाथ संकोच लिए तब से।
आप जब तक दुसरे के पास से लाभ लेने अथवा आशा रखते हो तब तक इन्सान दुसरो पर परावलंभी रहता है।
वो खुद की इच्छा से जी नही सकता…..