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श्रद्धा के दीपक

जीवन एक सत्य हैं। जैसे घर के आंगन में दीपक प्रज्बलित होता हैं तो फिर अंधारे का नामो निशान नही रहता हैं। ठीक उसी तरह अगर हमारे मनमंदिर के अंदर के आगम में उल्लास और श्रद्धा के दीपक प्रज्बलित रहेगे तो जीवन में कभी भी कोई दर का नामो निशान नही रहेगा।

एक छोटा सा प्रसंग उजर की बात सुन्दर तरह से समझाता हैं।

बालको शिक्षा के लिए जाते हैं। आज के शिक्षण में तो पुस्तको और परिक्षा के बोझ से बालक दब जाते हैं। बार बार परिक्षा आती हैं। और उसी के टेंशन में बालक जीता हैं।

ऐसी एक परिक्षा की मौसम थी। परिवार में दो भाई बहन थे। भाई बड़ा था, बहन छोटी थी। दोनों का अभ्यास एक ही स्कूल में हो रहा था। परिक्षा का प्रारम्भ हुआ। दोनों ने तन मन से परिक्षा की खूब तैयारी की थी। अभ्यास का संपूर्ण कोर्स उन्होंने याद किया था।

परिक्षा के दिनों का वातावरण घर में हो गया था। परिक्षा के दिन माता ने मंदिर में दीपक किया और दोनों भाई बहन को शुकन के लिए दही शक्कर खिलाई।

बड़ा भाई खूब ही चिंता में था। छोटी बहन एक दम खुश मिजाज थी। माँ ने पूछा तुझे परिक्षा का कोई दर नही लगता हैं। बेटी ने बहुत अच्छा जवाब दिया।

परिक्षा से माँ क्यों दर लगेगा??

माँ उठी और बोली की बड़ा भाई को पेपर का कितना दर लग रहा है। प्रश्न पत्र कैसा होगा इसका दर तो भाई को कितना हैं।

बेटी ने जवाब दिया की भाई यह भगवन मेरे साथ है। मैंने प्रभु को मन से प्रार्थना की हैं। अच्छी तरह से पढा हैं। बराबर विषयो को तैयार किया हैं। याद किया हुआ लिखना है तो डरना क्यों हैं??

भाई चुप हो गया। छोटी बहन की बात सही थी। माँ ने तो बेटी को प्रेम से चूम लिया। और बोली मेरी प्यारी बेटी सुन्दर श्रद्धा हमको भी मिल जाये तो कितना अच्छा ? हम सब भी कितने हल्के हो जायेगे। जो प्रभु हमारे साथ ही है। बस

” श्रद्धा प्रगट करना है। तो फिर कुछ भी भार नही लगेगा”

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