रावण के वीर पुत्र इंद्रजीत , मेघवाहन एवं उनकी माता मंदोदरी को कोन नही पहचानता?इन तीनो का आपस का स्नेहसंबंध उनके पिछले जन्मों से चला आ रहा था और भव में उसने खुद का विस्तार बढ़ाया भी था।
उस मंदोदरी को धन्य है जिसके सतीत्व की देवो ने प्रशंसा की ।उन इंद्रजीत तथा मेघवाहन को धन्य है जिन्होंने कभी भी राज्यलक्ष्मी की इच्छा नही रखी । पिता जीवित थे तब उनकी आज्ञा के प्रति ईमानदार रहे तथा पिता की मृत्यु के बाद आत्मसाधना के मार्ग पर निकल पड़े ।
रावण के वध के बाद रामचंद्रजी ने लंका का साम्राज्य कुंभकर्ण , इंद्रजीत तथा मेघवाहन को सोपना चाहा तब इन उत्तम पुरुषों ने रामचंद्रजी को जवाब दिया की हे महापुरुष! लंका के इस अद्वितीय साम्राज्य की हमे जरा भी इच्छा नही है । हमे तो अब , मोक्षरूपी साम्राज्य की अभिलाषा हैं। मोक्षसाम्राज्य को देनेवाला साधन एक ही है , दीक्षा । हम दीक्षा का स्वीकार करेंगे । इसे कहते हे, सच्ची विरवृत्ति!
दुश्मन के वध के लिए जो वीरता अनिवार्य नही है ऐसी वीरता विषय की लालसा के वध के लिए भी अनिवार्य है।
शस्त्रो के खेल में जितना तो द्रव्यविरता है जबकि संयम के खेल में जितना भाव वीरता है। करोड़ो गुना ऊँची है , द्रव्यविरता से मुकाबले में भाव वीरता।
रावण की अंतिम क्रिया के समय गूंजी हुई निशानों की परछाईया कान पर से दूर भी नही हुई थी वहाँ तो यह संवाद होने लगा।ऐसा संवाद चालु था वही यह समाचार मिला ,’अप्रमेय नामक मुनि को केवलज्ञान की प्राप्ति हुई है। लंका के बाहर के बगीचे में ही वे बीराजमान है। देवता उनके केवलज्ञान का महोत्सव मनाने उमड़े हुए है।
इतना सुनते ही केवलज्ञान का उत्सव करने के लिए यहाँ से भी सब निकल पड़े। राम, लक्ष्मण तथा उनके अनुयायी , उनके साथ कुंभकर्ण, इंद्रजीत , मेघवाहन तथा रावण के अनुयायी । रावण की सोलह हजार रानियाँ भी प्रवचनमंडप में पहुँच गई। दोनों पक्षो में संवेदन का विश्व बहुत ही संवेदनशील बना हुआ था। एक पक्ष में विरह की लगन तथा दूसरे पक्ष में विजय की लगन।
प्रवचन के अंत में इंद्रजीत तथा ।मेघवाहन ने खुद के पिछले जन्मों के बारे में पूछा ।
केवलज्ञानी मुनिवर ने उनको जो समाधान दिया, यहाँ पर प्रस्तुत है।
इस भरतक्षेत्र में कोशांबी नाम की नगरी जैसे आज विद्यमान हे उसी तरह पहले भी थी ।इस नगरी में चार भव के पहले तुम दोनों उत्पन्न हुए । सगे भाई बने। एक का नाम प्रथम तथा दूसरे का नाम पश्चिम । नाम भले ही प्रथम तथा पश्चिम थे परंतु तुम दोनों के बीच की एकरूपता तो बहुत ही आश्चर्यजनक थी । पापोदय के कारण तुम दोनों बहुत ही गरीब कुल में जन्मे थे । बहुत मेहनत के बाद भी वह गरीबी दूर नही हुई । निर्धनता से हताश तथा सुख के अभिलाषी तुम दोनों एक बार बगीचे में गये। वहाँ पर जैन मुनि के दर्शन हुए । तुम उनकी सेवा करने लगे।
पके हुए फल की सुगंध जैसे छिलके की दीवार को भेदकर बाहर फेके बिना नही रहती उसी तरह आत्मा में छिपी हुई लायकात गरीबी के पल को छेदकर उसके व्यवहार में प्रवेश किये बिना नही रहती।
तुम्हारे में छिपी हुई लायकात मुनि के मन में बस गई । इसीलिए मुनि ने धर्मदेशना दी। मुनि की वाणी से तुम्हारा ह्रदय द्रवित हो गया। वैभव की असारता समझ में आई । मन में सुलग रही वैभव की लालसा शांत होने लगी । उसका स्थान वेराग्यभावना ने ग्रहण किया। तुम दोनो मुनिराज के पास संयम ग्रहण करके दीक्षित बने।
कषायों पर विजय पाते हुए तथा क्षमा के अमिरस का पान करते हुए तुम दोनोने करोड़ो वर्षो तक तप से भरा हुआ संयम पाला। एक बार किसी अवसर पर कोशांबी नगरी में पहुचे , वसंत ऋतु का समय था। इंद्रमुखी रानी के साथ इंद्र की तरह मस्ति कर रहे वहाँ के राजा नन्दिघोष को तुमने देखा।
विषय क्रिड़ा का दर्शन शायद विषयसेवन से भी ज्यादा खतरनाक है, क्योकि वह विषय के त्यागी को भी विषय का अनुरागी बना देता है।
राजा-रानी की वसंत क्रिड़ा का दर्शन पश्चिम मुनि के लिए दलदल जैसा प्रतीत होने लगा । वे उसमे फँस गये, वैराग्य से चलित हो गए तथा ऐसा संकल्प किया कि इस भव में जो तप किया है उसके प्रभाव से आनेवाले भव में ऐसे समृद्धिशाली राजा का पुत्र बनूँ।
संसारी जीवन में जो गरीबी सहन की थी उसकी वेदना आज फिर से सुलग उठी और उससे ये मुनिराज विषय के प्यासी तक बन गए।
उनके भ्राता प्रथम मुनि को इस बात का पता चला तब उन्होंने पश्चिम मुनि को बहुत समझाया परंतु वे किसी तरह से भी समझे नही । प्रथम मुनि की प्रार्थना से गच्छ के अधिकारी सुरिवर्य वगैरह ने भी उनको सदबोध दिया परन्तु वह असरकारी नही बना।
पश्चिममुनि नियानापूर्वक मृत्यु को प्राप्त हुए तथा इसी शहर में नन्दिघोष राजा के पुत्र के रूप में पैदा हुए । इंद्रमुखी रानी के पुत्र बने। समयानुसार जवान बने तथा उचित समय पर उनका राज्याभिषेक भी हुआ । रतिवर्धन ऐसा उनका नाम था ।
अप्सरा जैसी अनेक सुन्दर रानियों से घिरे हुए वे खुद के पिता जैसे ही क्रिड़ा करने लगे।
इस तरफ प्रथममुनि ने निरतीचार संयम का पालन किया। वे मृत्यु पाकर पाँचवे देवलोक में प्रतिभासंपन्न देव बने। उस देव ने रतिवर्धन राजा को विषय में बहुत ही मशगुल बना हुआ देखा । उनकी आत्मा पिघल गयी। विषयसुख का इतना राग मेरे इस भाई को कहाँ ले जायेगा?
पूर्वजन्म के ऋणानुबंध से प्रेरित बने यह देव ने मुनि का वेश ग्रहण किया तथा रतिवर्धन राजा को प्रतिबोध देने के लिए उसके राजमहल में पंहुचा।
रतिवर्धन ने भी मुनि का सत्कार किया । मुनि को देखते ही उसके दिल में ठंडक फैलने लगी इसका नाम प्रेम! राजा को जातिस्मरण ज्ञान हुआ । अपना पूर्वजन्म जन्म खुद ही नजरो के सामने घूमने लगे । अब देव ने मुनि वेश का त्याग करके देवता का रूप धारण किया । राजा को प्रतिबोध दिया की विषय का ऐसा प्रचण्ड राग तेरी आत्मा का क्या हाल करेगा ? अब विषयो से विश्राम ले ले । पूर्वजन्म का पारस्परिक सम्बन्ध भी बताया ।
देव वाणी का राजा के मन पर गहरा असर हुआ । पिछले भव में खुद ने जो संकल्प किया था वह बहुत बड़ी भूल थी ऐसा पश्चाताप हुआ ।
सुंदरियों से ज़्यादा सुख रत्नत्रयी के इस संघ में है ऐसी श्रद्धा जागी । आखिर में राजा ने संसार का त्याग किया । उत्तम चरित्र का पालन किया । म्रत्यु पाकर पाँचवे देवलोक में पैदा हुए ।
वहाँ प्रथम तथा पश्चिम दोनों मुनियो के बीच फिर से प्रेम का विकास हुआ। आयुष्य का क्षय होने पर दोनों क्रमशः म्रत्यु को प्राप्त हुए । महाविदेह क्षेत्र के विबुद्धनगर में दोनों सगे भाई के रूप में पैदा हुए । दोनों अलग शहर के राजा बने। अंत में, दोनों ने दीक्षा स्वीकार करके उल्लासपूर्वक संयम का पालन किया। मृत्यु को प्राप्त हुए तथा चौथे भव में बारवे अच्युत देवलोक में पैदा हुए । वहाँ पर भी तुम दोनों के बीच मित्रता का संबंध स्थापित हुआ। बारवे देवलोक से मृत्यु पाकर प्रथम तथा पश्चिम मुनि की आत्मा यहाँ रावणपुत्र इंद्रजीत तथा मेघवाहन के रूप में पैदा हुई है।
इसी तरह वे इंद्रमुखी रानी की आत्मा इस भव में तुम्हारी माता’मंदोदरी’ के रूप के तुम्हे वापिस मिली है।
सभी की आँखे आश्चर्य से चकित हो गई । मंदोदरी की आँखों से टप-टप आँसु बहने लगे। इंद्रजीत तथा मेघवाहन के मन में मंथन पैदा होने लगा। कुम्भकर्ण के साथ वे तीनों उसी क्षण खड़े हो गये । गुरुदेव के सामने रजोहरण अर्पण करने की प्रार्थना करने करने लगे । गुरुदेव ने भी इन सबको रजोहरण प्रदान करके दीक्षित किया।
युद्ध के मेदान में खुद के जीवन की भी परवाह नही करनेवाले ये विरपुरुष थे, अब वे और ज्यादा वीर बनकर कष्ट , प्रतिकुलताये तथा परिसह सहन करते गये। ये चारों ही उसीभव में मोक्षगमन करनेवाले पुण्यशाली जिव थे।
इंद्रजीत तथा मेधवाहन मुनिने छः साल के संयमकाल में आत्मा का श्रेय साध लिया । ६ वर्ष के पर्याय में विध्याचल पर्वत पर अनशन करके उन्होंने केवल ज्ञान प्राप्त किया तथा वही पर उनका निर्वाण भी हुआ । उनके निर्वाण के बाद वह भूमि मेघरथ तीर्थ के नाम से प्रसिद्ध हुई।
उसी समय कुम्भकर्ण मुनि को भी नर्मदा नदी पार करते करते केवलज्ञान की प्राप्ति हुई । कुम्भकर्ण मुनि की निर्वाण भूमि पृष्ठरक्षित तीर्थ के नाम से प्रख्यात हुई।
-आधारग्रंथ: त्रि.श. पु. ( पघ)