सूअर जैसा मुँह तथा पूरा शरीर काला-काला श्याम । इतना कम हो इस तरह उसके सिर के ऊपर घड़े जैसी बड़ी गांठ थी। जैसे मांस का बड़ा लोचा ही देख लो। उस स्त्री को जो भी देखता है वह उसे क्षणभर के लिये राक्षसी ही मन लेता है। इसके बाद जब पता चलता हे कि यह तो कोई मानवीय नारी है तब ठठ्ठा – मश्कारी शुरु कर देता है।
दुर्भाग्य के चलते – फिरते किल्ले जैसे जीवन को जिनेवाली उस स्त्री का नाम ‘दुर्गता’ था। वह जन्मी की तुरंत उसके माता-पिता मर गये। भटकती -टकराती वह बड़ी हुई। फटे हुये कपड़े तथा रोगिष्ठ काया के साथ नगर में हमेशा भटकती रहती।
एक बार श्रीधरराजा के नजरो में वह चढ़ गई। राजाने उसे देखते ही नि:श्वास छोड़ा । राजा इस समय नगर में पधारे हुए विजयसूरी नामक ज्ञानी आचार्य के पास वन्दनार्थ जा रहे थे। सूरी भगवंत के पास पहुचकर राजा ने प्रथम उनकी देशना सुनी, उसके बाद इस स्त्री का पूर्वजन्म पूछा। योगानुयोग था कि दुर्गता भी देशना की पर्शदा में आकर बैठ गयी थी उसको भी खुद के विकराल जीवन की तरफ नफरत जागी थी और इससे ही पिछला जन्म जानने की इच्छा जन्मी थी ।
सुरीदेव ने दुर्गता के पिछले जन्म की कथा शुरू की ।
दुर्गता को उद्देश्य बनाकर फ़रमाया : तू पिछले जन्म में कलाश्री नामकी कुलवधू थी । तेरी पुत्रवधु का नाम सोमश्री । जैसा तुम्हारा नाम था वैसा ही दोनों का स्वभाव था । तू हमेशा ईर्ष्या तथा आरोप – प्रत्यारोप से धमधमति रहती जबकि सोमश्री उत्तम धर्म करने की इच्छा रखती ।
एक बार सोमश्री ने कुँए में से लाये हुए मीठे पानी का घड़ा जिनबिम्ब के पक्षाल के लिए मंदिर में जाकर दे दिया । तुझे पूछा भी नही क्योंकि तेरे स्वभाव के लिए उसे असंतोष था । फिर , किसी भी तरह से जिनपूजा में समर्पित होने की उसकी इच्छा भी थी ।
सोमश्री घर वापिस लौटी तब उसे देखते ही तू क्रोध से सुलग उठी । बोल पड़ी की रांड! घड़ा तेरे सिर पर ही कैसे चिपक न गया ? किसलिये मंदिर में दे आई ? इतनी मेहनत से घरकाम होता है और तू मुझे पूछे बिना यश लेने निकली है ? इस समय तूने बहुत अशुभ कर्म बांधा । पक्षाल के लिए दिए हुए घड़े की भत्सर्ना की । उसके परिणामस्वरूप इस भाव में तेरे सर के ऊपर घड़े जैसी बड़ी गाँठ निकली है । जिनपूजा में अंतराय किया इसलिए वेनुदत्त सेठ की लड़की होते हुए भी आज भटकती हुई जिंदगी व्यतीत कर रही है ।
भगवन्त, मेरा इस पापकर्म का अंत कब आएगा ? इसी भाव में तेरा यह पापकर्म क्षय पायेगा और तू वापिस संपत्ति की मालकिन बनेगी ।
भगवन्त , मेरी वह पुत्रवधु सोमश्री अब कहाँ है ?
सोमश्री धर्म के प्रति अनुराग रखने वाली थी इसलिए वहाँ से म्रत्यु पाकर इसी नगर में राजपुत्री तरीके जन्मी है । यह श्रीधरराजा के पास बैठी हुई उनकी कुम्भश्री यानि की पिछले जन्म की सोमश्री ।
सभा के आश्चर्य की सीमा न रही ।
दुर्गता की आँखो में आँसुओ की बाढ़ आ गयी ।
-संदर्भ : कवी उदयरत्नजी कृत ‘अष्टप्रकारी पूजानो रास ‘