एक बहुत ही गरीब ब्राह्मण था उसने एक संत की सेवा करना शुरू किया और उनका शरण लिया ब्राह्मण ने मन में नक्की कर लिया के मै संत श्री की इतनी जोरदार सेवा करूँगा की वो खुश हो जायेगे और उनके आशीर्वाद से मेरी गरीबी भी दूर हो जायेगी।
ब्राह्मण संत श्री की इतनी सेवा करता की न तो वह दिन देखता न ही रात बस सतत मनपूर्वक संत श्री की सेवा करता रहता। बहुत समय के बाद जब महात्मा प्रसन्न हो गए और पूछा – वत्स तू मेरी इतनी सुन्दर सेवा करता रहा पर मेरा प्रश्न ये है की तु मेरी इतनी सेवा करता है उसके पीछे तेरा प्रयोजन क्या था और अगर तेरी कोई इच्छा हो तो बोल मै तेरी इच्छा पूरी करना चाहता हु।
निर्धन ब्राह्मण ने अपनी निखालसत से कबूल करते हुए कहा- भगवन! मैंने आपकी इतनी संदर सेवा इसलिए की की आप मन से प्रसन्न हो जाओ और कोई ऐसा आशीर्वाद दो की जिस से मेरी गरीबी दूर हो जाये और मै इस नगर का सब से बड़ा सेठ बन जाऊ।
ब्राह्मण की निखालस बात सुन संत कुछ हँसे फिर बोले! वत्स विद्यपुरी के परम भक्त महात्मा प्रभुदास के पास जा। उनके पास पारसमणि है जो सभी वस्तु को सुवर्ण बना देती है। वो तुझे पारसमणि देगे जिस के द्वारा तुझे जितनी इच्छा हो उतना सोना इकठा कर सकेगा और नगर का सबसे बड़ा सेठ बन सकेगा।
संत का आशीर्वाद लेकर ब्राह्मण विद्यपुरी के रस्ते की तरफ निकल गया और महात्मा प्रभुदास के पास जाकर सारी बात कर दी। वे बात सुनकर कुछ भी नही बोले और अंदर जाकर छे पारसमणि लेकर आये और महात्मा प्रभुदास ने प्रसन्न मुद्रा के साथ वो पारसमणि ब्राह्मण कओ दे दी । ब्राह्मण खुश हो गया पर साथ-साथ में मन में आश्चर्य भी हुआ की ये कैसे महात्मा है की जिन को धन कोई मोह नही है। कुछ देर विचार किया फिर उसने अपनी। आशा को महात्मा के समक्ष व्यक्त किया। उसकी शंका का समाधान करते हुए महात्मा प्रभुदास ने कहा-
वत्स मेरे पास इससे भी बड़ी बहुमूल्य पारसमणि है। उसका नाम ईशवर प्रेम पारसमणि है। जिसके सामने सभी वस्तु तुच्छ है।
महात्मा की गहन निष्ठा से ब्राह्मण बहुत ही प्रभावित हुआ और उसने भी धन का मोह त्यागा और उसका शेष जीवन प्रभुभक्ति प्रभुभजन में बिताना।
जब इंसान प्रभु भक्ति में लीन हो जाता है तो फिर उस बाहरी वस्तु तुच्छ लगने लगती है। हमारी आत्मा के अंदर रही पारसमणि है।
जीवन सुवर्णमय बना सकती है। लोहे से ज्यादा महत्वपूर्ण जीवन को सुवर्णमय बनाना है।