माता-पिता का अरमान पूर्ण करें:
पुनः अपनी मूल बात पर आएं।- जो कुछ करें माता पिता की आज्ञा लेकर करें। माता-पिता जिसके लिए मना करें, वह कार्य कदापि न करें। माता-पिता डांटे तो प्रेम से सुने! उनके मनोरथ संभव प्रयत्नों से जल्द से जल्द पूर्ण करें।
उसका मनोरथ हो कि पालिताना का संघ ले जाना है, 200-250 लोगों का ले जाना है। किंतु आप की शक्ति हो तो 200-250 ही क्यों, 2000-2500 लोगों का छ’री पालक संघ ले जाकर उनके मनोरथ पूर्ण करने चाहिए।
यहा कहा गया है कि तुम्हें जो भी धर्म कार्य करने हो, वह सब माता-पिता आदि बड़ों के नाम से करें। कहीं भी सात क्षेत्र, अनुकंपा अथवा जीवदया में रुपए खर्च करने को आए तो उनके नाम से ही खर्च करें। अपने नाम से खर्च न करें। कोई भी शुभ कार्य हो, उनका श्रेय माता-पिता को दे। शुभ का श्रेय बड़ों को देना-यह भी धर्म प्राप्ति की एक उच्च योग्यता है।
माता-पिता कहै, देखो तुम पुत्रों को तो बहुत कुछ दिया, अब पुत्रियों को भी देना है।’ तो उनके मार्ग में बीच में नहीं आना चाहिए। पुत्री भी उनकी ही संतान है। उनकी इच्छा भी पूरी करनी चाहिए। ‘ठीक है पिताजी! ऐसा ही करेंगे’ यह कहकर उनका मनोरथ पूर्ण करना चाहिए।
जितना औचित्य पिता के प्रति करना है, वह सब औचित्य माता के प्रति भी अवश्य करना है। इसके बावजूद ग्रंथाकार विशेष बात करते हुए कहते हैं कि-स्वभाव से ही महिलाओं का मानस स्नेह पूर्ण होता है। बात-बात में बुरा लगना, दिमाग पर असर होना, आघात लगना, डिप्रेशन में आ जाना यह सब हो सकता है। इसलिए भी माता के साथ व्यवहार में अधिक कोमलता रखें। उनका विनय सविशेष करें। उनके मन को, भावना को कहीं ठेस न लगे, इसका ध्यान रखकर प्रत्येक व्यवहार करना चाहिए।
आज से इसकी शुरुआत हो जाएगी?
अगले रविवार को प्रश्न पत्र दे दु? जितनी बात कर गया, इसमें से कितनी बातों का अमल होगा? आज से विनय-व्यवहार पक्का? अब ह्रदय में, जीवन में, व्यवहार में माता-पिता का ही पहला स्थान होगा न?