गुरूदेव का प्रवचन सुनने एक सज्जन आए थे। उनके साथ मे 7-8 साल का उनका बेटा भी आया था। प्रवचन प्ररम्भ हुआ। थोड़ी ही देर मे बेटे ने कहाँ- पापा बिस्किट दो। पापा ने बेटे को बिस्किट दिया।
थोड़ी सी देर मे बेटे ने फिर से कहाँ- पापा प्यास लगी है मुझे पानी दो। पिता ने उसे पानी की बोतल दे दी।
थोड़ी देर मे फिर वह बोला पापा बेग मे से खिलौने दो। पिताजी ने खिलौने भी दे दिये। पापा अब मै खेलने जाऊ? उस समय पिताजी से रहा नही गया, उसने जोर से बेटे को डाँटा और फिर बोले सीधा बैठ। कबसे ये दो- वो दो करके दुसरो को भी प्रवचन सुनने नही दे रहा है।
बच्चा डर कर चुप चाप बैठ गया। प्रवचन देनेवाले गुरूजी और प्रवचन सुननेवाले श्रुतागण सारो का ध्यान उस तरफ गया। बालक तो डरकर एकदम बैठ गया था।
यह प्रसंग होने के बाद गुरूदेव ने प्रवचन को आगे चलाया और कहाँ- यह तो बालक है। यह दो घड़ी ( 48 मिनट ) भी शान्ति से नही बैठ सकता है। पर क्या हमने कभी इसका विचार करा है कि क्या मै दो घड़ी भी शान्त से बैठ सकता हूँ?। शान्ति से बैठना यानि कि खुद के अन्दर मग्न होना है। दुसरी कोई भी वस्तु की इच्छा दुसरा कोई भी विचार नही। बस दो घडी तक मुझे खुद से ही मग्न रहना है। खुद मे खुद खो जाना है।
गुरूदेव ने आगे कहाँ- हमारा सच्चा स्वरूप आत्मा है। यह देह तो पूर्व कर्मो का फल है। यह हमेशा टिकने वाला नही है। आत्मा मे दो घडी लीन हो जाओ, परम शान्ति मिलेगी। मुझे आज उपदेश मे यही खास कहना है-
पर से खस
स्व मे वस
इतना बस
बस हमे इतना ही कहना है। पर से खसकना है। पर यह इतनी भारी है कि हम इसमे से खस नही पाते है।
हमे दो घडी खुद को सखना बैठना यानि राग- द्वेष को छोडना है। वैर भाव को छोडना है। समता को धारन करना है। खुद के अन्दर डूबना है।
बस आज हे ही खुद को दो घडी शान्ति से बिठाने का प्रयत्न करना। इसे कल पर मत छोडना ।।