हर इंसान स्वभाव से चालाक होता है। दिमाग मे चलते विचारो की मशीन मे चालाकी का प्रोडकशन करता रहता है। फिर मन मे ही कोई न कोई खेल खेलता रहता है और फिर लगातार उस खेल मे खेलता रहता है। और फिर कभी चालाकी मे जीतता है तो कभी हारता है। वह जितता है तो खुद को बुद्धिशाली समझता है और वही हारता है तो खुद को मुर्ख मानने को तैयार नही होता है ।
याद रखना साथियो चालाकी और चतुराई मे जमीन आसमान का फर्क है। चालाकी मे दाव पेज है तो चतुराई मे समझदारी। चालाकी मे किसी को गिराने की लालसा है तो चतुराई मे किसी का भला करने की भावना है। चालाकी स्वार्थ का उत्पाद है तो चतुराई परमार्थ का भाव है। चालाकी जीत से ज्यादा हारती है और चतुराई हमेशा विजय का ताज पहनती है। पर तकलीफ तब होती है जब इन्सान चालाकी को चतुराई समझ बैठता है ।
मुझे एक चालाक सेठ का किससा याद आ गया :
एक सेठ था। उसका एक नौकर था। सेठ के यहाँ कोई भी आता तो वह कहने लगता कि उसका नौकर पुरा का पुरा मुर्ख है देखो मै उसका एक नमूना दिखाता हूँ- सेठ एक हाथ मे रूपया रखता है और एक हाथ मे 2 पावली और फिर नौकर को बुलाता है और बोलता है- इसमे तुझे जो चाहिए वो ले ले। नौकर दो पावली ले कर जाता है। सेठ बोलता है- हे ना पुरा मुर्ख 2 संख्या देखकर ले गया। यह खेल सेठ ग्राहक के साथ रोज करता है ।
एक ग्राहक नौकर के पास जाता है। और वह उससे कहता है कि तू रोज मूर्ख बनता है? और यह सुनते ही नौकर हसने लगता है। वह कहता है- मै मुर्ख नही हूँ पर मेरा सेठ अक्कल बिना का है। मुझे पता है वो मुझे मुर्ख साबित करने के लिए रोज दो पावली का खेल खेलता है। और रोज मै ही उसको मुर्ख बनाता हूँ। फिर रोज खेलता है। जिस दिन मै रूपया उठाउँगा उस दिन से खेलना बंद हो जाएगा और मुझे रोज 2 पावली नही मिलेगी। इसिलिये मै रोज जानबूझ कर 2 पावली उठाता हूँ।
अब आप ही बताओ दोनो मे से कौन चालाक नही है। जहॉभी चालाकी use करोगे तो सामने से भी चालाकी ही मिलेगी। खुद को चालाक समझ करके मानव अन्त मे खूद मुर्ख बन जाता है।
याद रखना जिंदगी वो चेस का खेल नही है जिसके घोड़े ने मेरा रास्ता रोका तो मै भी मेरा हाथी रख के इसके वजीर का रास्ता रोकू। भले ही चेस बुद्धि का खेल माना जाता हो पर अन्त मे तो बस इसमे प्यादे मारने की ही कृति होती है। और जीवन मे ऐसी कृति का जोड होने से ये मानव को हिन्सक बनाती है ।
” खूद की अंतर आत्मा की आवाज को सूनकर चलना ही यशस्वी बनने का सरल उपाय है । “