जब हम गर्मी की ऋतु में रात्रि के समय किसी पहाड़ी प्रदेश की यात्रा करते है, तब दूर किसी स्थान में जलती हुर्इ अग्नि का दृष्य बड़ा मनोरम प्रतीत होता है l
उसकी लपलपाती लपटों में प्राकृतिक सौन्दर्य के रसिक को नृत्य एवं संगीत का भी आभास होता है । फिर आपकी ऐसी इच्छा भी होती होगी की आप उसे देखते ही रहें और अपना बाकी जीवन प्रकृति की गोद में ही बिता दे l
क्या कभी आपने यह भी विचार किया है कि उन लपटों में कितने सूक्ष्म जीव झुलस कर मरण को प्राप्त हो रहे होगें l
_अगर आपने कभी ऐसा सोचा होता, तो फिर आपको वह दृष्य मनोरम नहीं, अपितु अत्यन्त कारुणिक प्रतीत होता । तब आपको ऐसा लगता की वहां पर अनेकानेक छोटे-छोटे सूक्ष्म जिन्दा जीवों की चिता जल रही है l-
यह मनुष्य भव भी ऐसा ही है; जो हमारे जीव की कर्म रूपी अग्नि का कुंड ही है । जब आप अपनी आत्मा से दूर होकर इस शरीर को देखते हो, तो आपको यह बड़ा ही सुंदर प्रतीत होता है । तब यह आपको अपना प्रिय प्रतीत होता है । तब आप इसके पालने-पोषणें में लग जाते हो । इस शरीर को प्रिय सभी तरह की सुख सामग्री इकठठी करने मे लग जाते हो l
किन्तु आपने कभी विचार किया है कि इस शरीर रूपी अग्निकुंड में प्रति सेकण्ड कितने जीव भस्म हो रहे है ?
अरे इन जीवों के अगर हम पक्षी बनाकर पूरे लोकाकाश में उड़ायें, तो यह सम्पूर्ण लोकाकाश ठसमठस भर जावेगा लेकिन फिर भी वे पक्षी नहीं समायेंगे । इस शरीर के निमित्त से प्रति सेकण्ड अनन्त जीव मरण को प्राप्त हो रहे हैं और फिर भी अगर आपको इस शरीर को धारण करने का दुख नहीं है और उल्टे आप इस शरीर को ही अपना स्वरूप मानकर इसी की रक्षा में लग रहे हो, तो ऐसे आपके भाव तुम्हे फिर किस गति में ले जावेगे; एक पल तो आपको इसका भी विचार करना चाहिये l
_साथ ही ऐसे शरीर रूपी अग्निकुंड आगे आपको और न मिलें, इसके लिये अब आपको सतत प्रयत्न करना चाहिये । यही भगवान् महावीर द्वारा बतायी गयी सच्ची अहिंसा है और जिसका पालन करने से आप भी अगले भगवान महावीर बन सकोगे l_