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॥सब जाये तो जाये मेरा जैन धर्म नही जाये॥

जब हम हमारा इतिहास देखते है तो सिर गर्व से ऊँचा हो जाता है। हमारे महापुरुषों ने इस धर्म के ख़ातिर प्राणो तक की बलि दे दी थी। सुदर्शन शेठ एक चोर को बचाने के लिए ख़ुद सुली पर चढ़ने के लिए तैयार हो गये। प्रभु के तिलक की रक्षा के लिए कई सारे युवा ने अपना प्राण न्योछावर कर दिया।
ऐसा ज़ोरदार गौरवशाली हमारा इतिहास है। हमारे पूर्वजों ने यही धरोवर हमें सोंपि है।
क्या हमारे पास आज धर्म के लिए ऐसी ख़ुमारी है? हमारी रोम रोम से धर्म के प्रति क्या ऐसा समर्पण बहता है? या फिर हम छोटी- छोटी बातो से ही धर्म के साथ समजोता करने लगते है?
हम हमारे मोज -शोक को पूरा करने के लिए धर्म का साथ छोड़ने को भी तैयार हो जाते है। हम आसक्ति में इतने टल्लिन्न बन जाते है कि हम धर्म को ढोकर मार देते है। अन्य के दबाव में आकर हम आत्मा का हित भूल जाते है। तो फिर जीवन कैसे चलेगा?
एक लड़की मेरे पास आती है। अनु उसका नाम था। अपनी आप बीति सुनाती है- की मेने आज तक कंदमूल नही खाए है पर मेरी शादी जहाँ पर हुई है वहाँ जैन फ़ूड होटेल में नही मिलता है। और मै अपने शोख को ख़त्म करूँ। मै वहाँ जाकर कंदमूल खाऊँगी। मै चौक गया की वह क्या बोल रही थी। कुछ समज में नही आया। सिर्फ़ मोज मस्ती के लिए अभक्ष खाने को तैयार हो गई। उसी समय अनार्य देश में रहते राहुल नाम के लड़के के लिए मेरा मस्तक जूक गया। धन्य है उसे, जो वह अपना भोजन स्वयं बनाता है। ताकी मेरे पेट में कंदमूल ना जाए। क्योंकि मेरे पेट में कंदमूल जाए तो में जिनका भक्त हुँ उसे लोग कहेंगे?। की कैसा आपका भक्त है यह भक्ति करता है और वह शब्दो की अहवेलना करता है। इनहि शब्दो को पकड़कर कम्पनी में CEO होने के बाद भी एक भी कण अभक्ष के मेरे मुँह में नही जाए उसका उसे ध्यान रखा।
अनु की आसक्ति और राहुल की गुरुभक्ति दो भिन्न दिशाओं का बता रही थी।
एक समर्पण से जीवन में चार चाँद लगा रहा था। तो आशक्ति में मगन होकर जीवन बर्बाद कर रही थी।।

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