अहिंसा आदि व्रतों के पालन में या मैत्री आदि भावनाओं में अपनी आत्मा के उपकार का लक्ष्य हो और अन्य जीवो की पीड़ा के परिहार या हित चिंतन आदि की प्रवृत्ति हो, तो ही वह धर्म-अनुष्ठान स्व-पर उपकारक बन सकता है। अन्यथा सिर्फ स्वयं की पीड़ा के परिहार या स्वयं की हितचिंता की प्रवृत्ति से आत्म-कल्याण होता हो, तो प्रत्येक जीव अनादिकाल से स्वयं की पीड़ा के परिहार रुप अहिंसा, मैत्री, अपने गुणों का प्रमोद, अपने दु:खों की करुणा तथा अपने दु:खों की उपेक्षा करते हुए आया है, परंतु उससे इस जीव का हित नहीं, अपितु भयंकर अहित ही हुआ है।
स्वार्थ अंधता का पाप ही जीवो का अहितकारक है। ऐसा समझकर विश्वोपकारी, विश्ववत्सल, परमज्ञानी पुरुषों ने अन्य जीवो की हिंसा के त्याग स्वरूप अहिंसादि व्रत और परहित चिंता रूप मैत्री, पर-गुण तुष्टि रूप प्रमोद, पर दु:ख प्रतिकार रूप करुणा और परदोष उपेक्षा रूप माध्यस्थ भावनाओं के सेवन करने का विधान किया है। मैत्री आदि चारों भावनाएं यदि अन्य जीवो के प्रति की जाए तो ही गुण रूप अथवा स्व-पर अहितकर बनती है और स्वयं के लिए करें तो दोष रूप अथवा स्व-पर अहितकर बनती है। अहिंसादी व्रतों के पालन से जिस प्रकार भाव प्राणों की रक्षा और जन्म-मरण आदि के कारणभूत और अशुभ कर्मों का निरोध होने से आत्मा का हित होता है, साथ ही अन्य जीवो के भी द्रव्य प्राणों की रक्षा और पीड़ा का परिहार होने से परहित होता है।
इस प्रकार स्व उपकार और परोपकार एक ही कार्य के दो पहलू होने से इन दोनों को अलग नहीं कर सकते।
साध्य रूप में स्वोपकार और साधन रूप में परोपकार को ही जीवन में प्रधान्य देना चाहिए। यह परोपकार सच्चा बना रहे, इस हेतु कृतज्ञता के भावों को अवश्य लाना चाहिए अन्यथा परोपकार अहंकार का पोषक बन जाने से स्वोपकार के बदले स्व-अपकार (अहित) का कारण बन जाएगा और वही और अशुभ कर्म के बंध का कारण बनता है।