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क्रिया के गर्भ में ज्ञान

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सामने सैकड़ों वस्तुए पड़ी हो , आंखें खुली हो तो भी लोग उन सभी वस्तुओं को देखते नहीं , जितनी वस्तुएं देखते हैं उतने को ही को भी नहीं समझते ।

अपनी गली में अमुक घर में कितनी खिड़कियां है ? यह खिड़कियों को प्रतिदिन देखने पर भी नहीं जानते । घूमने के रास्ते में आए हुए कितने ही वृक्षों के नाम मालूम नहीं होते है । बगीचे के पौधे को कब फूल आता है और अमुक फूल का कौन सा रंग है , यह भी लोग नहीं कह सकते , जाने खुली आंख से हम अंधे हो और कान होते हुए भी हम बैहरे हो , ऐसा दुनिया में बहुत बार देखने को मिलता है । हमें भी अनुभव होता है ।

जो ज्ञान ग्रहण अपन करते हैं , वह भी अपनी आवश्यकता जितना ही होता है और उससे सब कुछ मिल गया ऐसा मानने में आता है । यह एक ठगने वाला आत्म संतोष है ।

सामने रही वस्तु एक होते हुए भी उसका दर्शन व्यक्तिपरत्व से भिन्न भिन्न होता है । जितनी जीसकी भूख , उतना ही वह खा सकता है और जितनी जिसकी पाचन शक्ति , उतना ही बचा सकता है । अंत में , ऐसा कहना पड़ेगा कि अपन योग्यता और शक्ति अनुसार ही जगत में से प्राप्त करते हैं । ज्ञान भी वस्तु के बदले वस्तु के देखने वाले के ऊपर ही निर्भर है ।

बाह्य जगत को समझने के लिए मनुष्य को स्वयं ही प्रयत्न करना है । सिर्फ देखते रहने से या बैठे-बैठे सुनने से वस्तु के संबंध में ऊपरी स्तर का ख्याल का ही ख्याल आता है ।
पर्वत के पीछे देखते रहने से वह पर्वत पर चढ़ नहीं सकता । चढ़ने के लिए उसी को प्रयत्न करना पड़ेगा । पर्वत पर चढ़ते चढ़ते और पानी में तैरते तैरते ही पर्वत और तालाब का सही ज्ञान मिल सकता है । धीरे-धीरे ज्ञान को बढ़ा सकते हैं । क्रिया के गर्भ में ज्ञान रहा हुआ है , यह इस तरह सत्य साबित होता है ।

वर्तमान का ज्ञान और उसे पाने के तरीके वास्तविकता के स्तर से शायद ही आगे जाते हैं । ज्ञान लेने वाले को हमेशा क्रियाशील रहना पड़ेगा । कार्य करने से ही ज्ञान प्राप्ति करने की योग्यता और आवश्यकता बढ़ती है ।

जिज्ञासा बिना ज्ञान आता नहीं और कर्म किए बिना सच्ची जिज्ञासा जाग्रत नहीं होती । जिज्ञासु बनने के लिए क्रिया अनिवार्य है । क्रिया करते करते ज्ञान प्राप्ति की योग्यता की शक्ति का विकास होता है और वृद्धिगत ज्ञान भी शुभानुष्ठान के विकास हेतु उपयोगी बनता है ।

प्रकाश लेना और विकसित होना एवं विकसित होकर अधिक प्रकाश को स्वीकार करना , यही जीवन में इस वृक्ष का धर्म है ।

भूतकाल में रहा हुआ जल एवं थाली में रहा हुआ अन्न , वही रहता है , ना तो मानव प्राणियों की तृषा शांत करता है क्षुधा मीटाता है । पानी को बाहर लाने के लिए जमीन को खोदने की क्रिया करनी पड़ती है । अन्न को ग्रहण करने के लिए ग्रास मुंह में डाल कर चबाना पड़ता है । उसी तरह आत्मा में रहे अपार ज्ञान को पाने के लिए निरंतर सतक्रियाशील रहना पड़ता है । उचित क्रिया की उपेक्षा , जिव को अधिक अज्ञान द्वारा आवर्त करती है , यानी की ज्ञानी भगवंतों के सदुपदेश के अनुसार क्रिया द्वारा आत्मा के अमाप प्रकाश को पाने के लिए प्रत्येक पल प्रयत्नशील रहना चाहिए ।

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