आत्मा में स्थिर हो जाने से जीव ऐसे स्थान में स्थिर होता है कि जहाँ सूर्य -चंद्र या अग्नि प्रकाश की आवश्यकता ही नही रहती ।
आत्मा का आत्मा में अवस्थान यह मोक्ष का शिखर है, इस शिखर पर रहे हुए मनुष्य की आत्मा के वैभव के सामने तीनो लोको का वैभव भी तुच्छ है।इस स्थान को करोड़ो में से कुछ ही जीव खोज पाते है और उसके लिए प्रयत्न करने वालो में से कुछ ही जीव उस स्थान को प्राप्त करते हैं। वह गुप्त और कठिन है इसलिए नही, परन्तु उसके लिए प्रयत्न करने वाले और उस पर विश्वास धारण करने वाले विरल हैं। इसलिए कुछ ही आत्माएं इसे प्राप्त करती है।
सर्व सामर्थ्यदायक वह स्थान है । बृहस्पति जैसे उपदेशको से भी कितनी बार वह अगम्य बन जाता है।
वह रत्न की पेटी है।
वह अपने अमूल्य रत्न आज ही आपको देने को तैयार है। आपके उद् घाटन की ही वह राह देख रही है।
जो बनने की इच्छा हो, जो पाने की इच्छा हो ,जो करने की इच्छा हो, वह सभी करने का सामर्थ्य पूर्ण रूप से आप में है। आपके अपने स्वरूप में, आपके स्वयं की आत्मा में आप स्वयं हो । आपकी अश्रद्धा को , आपके अविश्वास को, आपके संशय-विपर्यास को, आपके ही जितना होगा।
संशय यह बुद्धि की स्वतंत्रता है।
असंशय यह इन्द्रिय और मन की स्वतंत्रता है। ब्रम्हात्व का , आत्मा के ब्रम्हास्वरूप का अनुभव करने की तमन्ना करने वाले साधक को सभी अवस्थाओं में अपने जीव भाव का स्मरण न करते हुए, अपने ब्रम्हाभाव का स्मरण करना चाहिए।
यह ब्रम्हाभावना स्मरणवृत्ति में सदा जाग्रत रहे। उसके लिए ईश्वर तत्व की भावना करवाने वाले मंत्रपद को अपने ह्रदय में स्थापित करना चाहिए।वह मंत्रपद है’नमो अरिहंताणं ‘ ।