परमात्मा भी बड़ों का विनय करते थे:
आप तो कहोगे कि यह तो संसार त्यागी की बात है। लेकिन भगवान श्री महावीर परमात्मा संसार में थे, तब माता-पिता का कैसा विनय करते थे? परमात्मा की शादी के लिए राज्यसभा में रिश्ते आए। माता-पिता की इच्छा भी ऐसी ही थी कि वर्धमानकुमार शादी करें। किंतु वर्धमानकुमार से कैसे बात करें? सभी को यह असमंजस था। ऐसी बात जब मित्रों ने प्रभु से कि तब प्रभु ने कहा ‘आप बाल्यकाल से मेरी आंतरिक विरक्ति को जानते हो। मेरी सामने शादी की बात कैसे कर सकते हो?’ यह बात प्रभु ने ऐसे की कि जिसे सुनकर मित्रों की जबान बंद हो गई। इसी समय माता त्रिशलादेवी वहां पधारें। परमात्मा तीन लोक के नाथ हैं। जन्म के साथ ही उनका मेरु पर्वत पर अभिषेक हुआ है। अनेक देवता इसके बाद भी परमात्मा की सेवा में उपस्थित है। एसे परमात्मा माता को आते देखकर सिंहासन से खड़े होकर 7-8 कदम आगे चलकर माता को लेने आते हैं।
परमात्मा ने माता को अपने सिंहासन पर विराजमान किया। स्वयं हाथ जोड़कर उनके पास उचित विनय से खड़े रहें और पूछा कि ‘माता! आपने यहां आने का कष्ट क्यों किया? मुझे याद किया होता तो मैं ही आपकी सेवा में उपस्थित हो जाता।’
बीच में आपकी भी थोड़ी बात कर लूं? पहले के समय में माता को पुत्र के पास जाने और पूछताछ करने का हक होता था, आज तुमने माता को कोई ऐसा अधिकार दिया है?
परम परमतारक गुरुदेव अनेक बार यह बात प्रस्तुत करते थे। पुत्र अथवा पति बाजार में जाकर शाम को घर लौटता तो उसकी मां हो तो मां और मां न हो तो उसकी पत्नी उसे भोजन परोसती थी। तब मां पूछती थी कि ‘आज बाजार में क्या करके आया?’ ‘क्या लाया है?’ वह नहीं पूछती थी, ‘वह पूछती थी ‘क्या करके आया?’ अर्थात कैसे कमाया? यह प्रच्छा होती थी। इससे पता चलता है कि क्या करके कमाया है? अगर कमाने के लिए कुछ गलत किया हो तो पुत्र को धूल चटा देती थी और कहती थी कि ‘तेरे बापदादाओं का नाम डुबोने बैठा है। ऐसे उल्टे धंधे तुझे किसने सिखाए है? अब आगे अगर ऐसी भूल की तो तेरी खेर नहीं।’ यदि घर में मां न हो तो पत्नी भोजन परोसती थी और परोसते हुए वह भी मां की तरह से पूछती थी। उसे भी यदि पता चली कि व्यवसाय में कुछ गोरखधंधा किया है। तो वह कहती थी ‘यह सब पाप किसके लिए करते हो? आपका लाया हुआ हम तो भोगेंगे, लेकिन किए हुए पाप की सजा तो आपको ही भोगनी पड़ेगी? मैंने कभी आपसे कहा है कि इतना ले आना! जो लाओगे उसमें घर कैसे चलाना है, यह मुझे आता है। जानबूझकर दुर्गति में जाने का काम क्यों करते हो?’ ऐसा कहने वाली कोई मां या पत्नी आज आपके घर में है?
परमात्मा श्री महावीर देव से त्रिशला माता ने कहा, ‘वत्स! यहां आने का कोई अन्य प्रयोजन नहीं, बल्कि मुझे लगा कि तेरा मुख देख लूं इसलिए आ गई।’ जिन मित्रों से जिन्होंने कड़े शब्दों में कह दिया था, वे त्रिभुवन के नाथ परमात्मा श्री वर्धमानकुमार मां के साथ हाथ जोड़कर विनम्रता से खड़े हैं। इस दृश्य को आंखों के समक्ष तो लाओ! एक बार त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित्र पढ़ो तो मालूम होगा कि तीर्थंकरो जैसे लोकोत्तर महापुरुष भी अपने माता-पिता आदि पूज्यजनों के साथ कैसा औचित्य पूर्ण व्यवहार करते थे।
परमात्मा भी बड़ों का विनय करते थे:
आप तो कहोगे कि यह तो संसार त्यागी की बात है। लेकिन भगवान श्री महावीर परमात्मा संसार में थे, तब माता-पिता का कैसा विनय करते थे? परमात्मा की शादी के लिए राज्यसभा में रिश्ते आए। माता-पिता की इच्छा भी ऐसी ही थी कि वर्धमानकुमार शादी करें। किंतु वर्धमानकुमार से कैसे बात करें? सभी को यह असमंजस था। ऐसी बात जब मित्रों ने प्रभु से कि तब प्रभु ने कहा
‘आप बाल्यकाल से मेरी आंतरिक विरक्ति को जानते हो। मेरी सामने शादी की बात कैसे कर सकते हो?’ यह बात प्रभु ने ऐसे की कि जिसे सुनकर मित्रों की जबान बंद हो गई। इसी समय माता त्रिशलादेवी वहां पधारें। परमात्मा तीन लोक के नाथ हैं। जन्म के साथ ही उनका मेरु पर्वत पर अभिषेक हुआ है। अनेक देवता इसके बाद भी परमात्मा की सेवा में उपस्थित है। एसे परमात्मा माता को आते देखकर सिंहासन से खड़े होकर 7-8 कदम आगे चलकर माता को लेने आते हैं।
परमात्मा ने माता को अपने सिंहासन पर विराजमान किया। स्वयं हाथ जोड़कर उनके पास उचित विनय से खड़े रहें और पूछा कि ‘माता! आपने यहां आने का कष्ट क्यों किया? मुझे याद किया होता तो मैं ही आपकी सेवा में उपस्थित हो जाता।’
बीच में आपकी भी थोड़ी बात कर लूं? पहले के समय में माता को पुत्र के पास जाने और पूछताछ करने का हक होता था, आज तुमने माता को कोई ऐसा अधिकार दिया है?
परम परमतारक गुरुदेव अनेक बार यह बात प्रस्तुत करते थे। पुत्र अथवा पति बाजार में जाकर शाम को घर लौटता तो उसकी मां हो तो मां और मां न हो तो उसकी पत्नी उसे भोजन परोसती थी। तब मां पूछती थी कि ‘आज बाजार में क्या करके आया?’ ‘क्या लाया है?’ वह नहीं पूछती थी, ‘वह पूछती थी ‘क्या करके आया?’ अर्थात कैसे कमाया? यह प्रच्छा होती थी। इससे पता चलता है कि क्या करके कमाया है? अगर कमाने के लिए कुछ गलत किया हो तो पुत्र को धूल चटा देती थी और कहती थी कि ‘तेरे बापदादाओं का नाम डुबोने बैठा है। ऐसे उल्टे धंधे तुझे किसने सिखाए है? अब आगे अगर ऐसी भूल की तो तेरी खेर नहीं।’ यदि घर में मां न हो तो पत्नी भोजन परोसती थी और परोसते हुए वह भी मां की तरह से पूछती थी। उसे भी यदि पता चली कि व्यवसाय में कुछ गोरखधंधा किया है। तो वह कहती थी ‘यह सब पाप किसके लिए करते हो? आपका लाया हुआ हम तो भोगेंगे, लेकिन किए हुए पाप की सजा तो आपको ही भोगनी पड़ेगी? मैंने कभी आपसे कहा है कि इतना ले आना! जो लाओगे उसमें घर कैसे चलाना है, यह मुझे आता है। जानबूझकर दुर्गति में जाने का काम क्यों करते हो?’ ऐसा कहने वाली कोई मां या पत्नी आज आपके घर में है?
परमात्मा श्री महावीर देव से त्रिशला माता ने कहा, ‘वत्स! यहां आने का कोई अन्य प्रयोजन नहीं, बल्कि मुझे लगा कि तेरा मुख देख लूं इसलिए आ गई।’ जिन मित्रों से जिन्होंने कड़े शब्दों में कह दिया था, वे त्रिभुवन के नाथ परमात्मा श्री वर्धमानकुमार मां के साथ हाथ जोड़कर विनम्रता से खड़े हैं। इस दृश्य को आंखों के समक्ष तो लाओ! एक बार त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित्र पढ़ो तो मालूम होगा कि तीर्थंकरो जैसे लोकोत्तर महापुरुष भी अपने माता-पिता आदि पूज्यजनों के साथ कैसा औचित्य पूर्ण व्यवहार करते थे।