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आर्यरक्षित सूरिजी – भाग 45

समाधिमरणम!

नदी के नीर की भाती जीवन का प्रवाह बह रहा है। वर्तमान काल प्रतिक्षण भूतकाल बनता ही जा रहा है।

जो जन्म लेता है उसका अवश्य मरण होता है। जीवन के साथ मृत्यु की कड़ी जुड़ी हुई है।

जन्म के साथ मृत्यु अनिवार्य है- परंतु मृत्यु के बाद जन्म वैकल्पिक है। संयम की उत्कृष्ट साधना- पूर्वक, पवित्र जीवन जिया जाए तो आत्मा भव बंधन से मुक्त बन कर सदा काल के लिए अजर-अमर बन सकती है।

आर्यरक्षित सुरिवर का जीवन भव बंधन से मुक्ति पाने के लिए ही था। उनके साधक जीवन की प्रत्येक पल, कर्म के जाल को तोड़ने के लिए ही था। तप,त्याग,सयंम,तितिक्षा,ज्ञान,ध्यान और स्वाध्याय आदि की साधना द्वारा उनकी आत्मा फुल की भांति हल्की बन चुकी थी। उनके मुख पर ब्रह्मचर्य का अपूर्व तेज था। वृद्धावस्था से देह जर्जरित होने पर भी उनके मुख पर दीनता का नामोनिशान नहीं था। वे शांत और गंभीर थे। शासन के हित के लिए वे सतत चिंतातूर थे। देह के क्षणिक सौन्दर्य को पाने के बजाय उन्हें आत्मा के अक्षय अखण्ड सौन्दर्य को पाने की अधिक उत्कंठा थी।

उन्होंने देखा- देह क्षीण हो चुका है…… इस देह का अब कोई भरोसा नहीं है। इस प्रकार विचार कर उन्होंने चारों प्रकार के आहार का त्याग कर अनशन स्वीकार लिया। उनकी आत्मा परमात्मा ध्यान में मग्न थी।

शुभ ध्यान के बल से वे अनंत अनंत कर्मों की निर्जरा कर रहे थे।

उनके होठों पर आत्मानंद का स्मिथ था……..तथा उनके मुख में परमेष्ठी भगवंतों का सतत स्मरण था।

और एक घड़ी…… एक क्षण ऐसी आ गई…… उन्होंने इस जर्जरित देह का त्याग कर सदा के लिए विदाई ले ली। उनका आतम पंछी अनंत गमन में उड़ गया।

औदारिक देह का त्याग कर वे वैक्रिय देहधारी देव बन गए।

उनके अवसान से जैन संघ को बड़ी भारी क्षति हुई…… सभी के आंखों में आंसू थे……. सभी के दिल में वेदना थी…… सभी के मुख पर शब्द थे.. ऐसे गुरुदेव अब कहां मिलेंगे?

हजारों के तारक गुरुदेव आर्यरक्षित सुरिवर को चतुर्विध संघ ने अपनी भावभरी श्रद्धांजलि समर्पित की।

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