समग्र विश्व में ज्ञेय पदार्थ अनंत है, अतः ज्ञान भी अनंत है। ज्यों-ज्यों पदार्थ के यथार्थ स्वरुप का बोध होता जाता है, त्यों त्यों योगियों का ह्रदय आनंद से भरता जाता है। उनका समग्र जीवन ज्ञान प्राप्ति के लिए ही होता है। जिस प्रकार ज्ञान असीम है, उसी प्रकार ज्ञान का आनंद भी असीम है।
श्रुतज्ञान महासागर सम है। चौदह पूर्वो का समावेश श्रुतज्ञान के अंतर्गत होता जाता है। चौदह पूर्वधर महर्षि श्रुतकेवली कहलाते हैं। वह भी एक केवली की भांति धर्म देशना दे सकते हैं। श्रोताजन को पता ही नहीं चलता कि वह केवल ज्ञानी है या श्रुतज्ञानी।
श्रोताजन के बल से भी वस्तु के अनेक पर्यायों को आसानी से जाना जा सकता है।
आर्यरक्षित मुनिवर एक योगी आत्मा थे…….. उनके मन में ज्ञान प्राप्ति की अदम्य लालसा थी।
दशपूर्वधर महर्षि वज्रस्वामी के शुभ सानिध्य में बैठकर वे निरंतर एकाग्रता पूर्वक पूर्वो का अभ्यास कर रहे थे।
समय के प्रवाह के साथ साथ ज्ञान के शिखर पर आरूढ़ होने लगे। क्रमशः एक के बाद एक पूर्व का अभ्यास करते ही जा रहे थे।
(1) उत्पाद पूर्व (2) अग्रायनीय प्रवाद (3) वीर्य प्रवाद (4) अस्ति प्रवाद (5) ज्ञान प्रवाद (6) सत्य प्रवाद (7) आत्म प्रवाद (8) कर्म प्रवाद और (9) प्रत्याख्यान प्रवाद की समग्रता वे प्राप्त कर चुके थे।
ज्ञानसाधना में उन्हें असीम आनंद का अनुभव हो रहा था। सचमुच! ऐसा आनंद दुनिया में अन्यत्र का मिल सकता है?
अब वज्रस्वामीजी के पास आर्यरक्षित ने 10 वे पूर्व का अभ्यास प्रारंभ कर दिया।
आर्यरक्षित को दीक्षा अंगीकार किए भी दीर्घकाल व्यतीत हो चुका था।
अचानक एक दिन रुद्रसोमा का ह्रदय मातृवात्सल्य से भर आया। आखिर तो वह मां थी। उसके दिल में आर्यरक्षित के मुखदर्शन की पिपासा जाग उठी। आर्यरक्षित का सुकोमल चेहरा उसकी आंखों के सामने मंडराने लगा। आर्यरक्षित को दीक्षा लिए वर्षों बीत चुके थे। परंतु वे किधर विचर रहे हैं? इसके कोई समाचार रुद्रसोमा के पास नहीं थे।