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आर्यरक्षित सूरिजी – भाग 22

योग्य निर्यामक का योग हो और मृत्यु के समय समाधि की तीव्र इच्छा हो……. तो मृत्यु को महोत्सव स्वरूप बनाया जा सकता है। भद्रगुप्तसूरी म. की बात को सुनकर आर्यरक्षित ने कहा-भगवंत! आपकी आज्ञा शिरोधार्य है…… आपकी आज्ञा हो….. तो मैं अभी यहीं रहूंगा।

बस! भद्रगुप्तसूरी म.की आज्ञा से आर्यरक्षित मुनवर वहीं रह गए । वह बार-बार आचार्य भगवंत को परमात्म-भक्ति-प्रेरक वैराग्य के प्रेरक काव्य मधुर कंठ से सुनाने लगे ।

‘मैं देह नहीं हूं……. देह से भिन्न अजर-अमर आत्मा हूं। अनंतज्ञान-अनंतदर्शन आदि आत्मा की सच्ची संपत्ति है….. आत्मा स्वयं अक्षय सुख का भंडार है…… आत्मा में लीन बनने से, आत्मा स्वयं परमानंद का आस्वाद करती है। बहिर्भाव से मुक्त बनकर, जब आत्मा, आत्मा में स्थिर बनती है, आलौकिक-लोकोत्तर परमानंद का अनुभव होता है। देह विनाशी है……. आत्मा अविनाशी है।

इस प्रकार का आत्म-स्वरुपदर्शक अनेक बातें आर्यरक्षित मुनिवर पूज्यपाद आचार्य भगवंत श्री से करने लगे…… और बार-बार नमस्कार महामंत्र के स्मरण व अरिहंत आदि की शरणागति का श्रवण कराने लगे।

धीरे-धीरे समय बीतने लगा। आचार्य भगवंत ने अपने ज्ञान से देखा- अब इस देह का संबंध निकट प्रहर में ही छूटने वाला है। उन्होंने आर्यरक्षित को पास बुलाया और एक सूचना करते हुए कहा-रक्षित! तुम विद्या अध्ययन के लिए युगप्रधान वज्रस्वामीजी के पास जा रहे हो, परन्तु तुम वहां अलग उपाश्रय में उतरना और भोजन-शयन भी अलग ही करना क्योंकि जो भी मांडली में उनके साथ एक बार भी भोजन करता है, उसकी मृत्यु उनके साथ ही होगी……. तुम तो जिनशासन के महान प्रभावक बनने वाले हो…….. संघ के भावी आधार हो…….. अतः मेरे आदेश का पालन करोगे न?

आचार्य भगवंत के चरणों में प्रणाम करते हुए आर्यरक्षित ने कहा- “भगवन! आपकी आज्ञा शिरोधार्य है। मैं आपकी आज्ञा का बराबर पालन करूंगा।

आर्यरक्षित मुनिवर अत्यंत विनम्र और विनीत थे…….

ज्येष्ठ कि जिनाज्ञागर्भित आज्ञा का सहर्ष स्वीकार करना जैन मुनि का एक जीवन्त का आदर्श होता है।

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