अभी तुम्हारी विहार-यात्रा किस ओर चल रही है? भद्रगुप्तसूरीजी ने पूछा।
भगवंत! अभी गुरुदेवश्री की आज्ञा से उज्जैन नगरी की ओर विहार हो रहा है। पूज्य गुरुदेव ने मुझे पूर्वो के अभ्यास के लिए युगप्रधानवज्रस्वामीजी भगवंत के पास जाने की आज्ञा फरमाइ है।
भगवंत! आपश्री के देह में निरामयता है न? आप श्री का देह अधि कृश हो गया है।
‘आर्य! इस संसार में जिसका जन्म है…… इसका अवश्य मरण है। मानव देह क्षणिक व विनाशी है……अतः उसका अस्तित्व मर्यादित है….. उसको टिकाने के लिए कितने प्रयत्न और प्रयास किए जाए….. परंतु यह देह अधिक टिक नहीं सकता है, अतः अब जीवन के साध्य को सिद्ध करने की इच्छा है। मृत्यु द्वारा इस भौतिक जगत के साथ हुए संबंधों का विसर्जन होता ही है, संयम जीवन को स्वीकार कर कुटुंब परिवार व अर्थ काम का त्याग किया है…… और अब समाधि मृत्यु द्वारा निर्मम भाव से इस देह का त्याग करना है।’
‘मुनिवर! मेरे जीवन का अंत समय समीप लगता है, अतः तुम्हें अनुकूलता हो तो तुम मेरी समाधि-मृत्यु के निर्यामक बनो।’
आचार्य प्रवर श्री भद्रगुप्तसूरीजी दशपूर्वधर ज्ञानी महर्षि थे। वे ज्ञान के महासागर थे। फिर भी उन्होंने आर्यरक्षित मुनिवर को निर्यामक बनने के लिए आग्रह किया…….. इससे हम मृत्यु की भयंकरता की कल्पना कर सकते हैं।
जरा सोचे! एक इंजेक्शन लेने में भी जो ऊंचा नीचा हो जाता हो…… वह लाखो इंजेक्शनों की पीड़ा से भी भयंकर मृत्यु की पीड़ा में समत्व-भाव कैसे रख सकेगा? जिस देह के प्रति ममत्व बुद्धि रही हो……. और जिसके रक्षण/पालन व पोषण के लिए ही जीवन का अधिकांश भाग व्यतीत किया हो, वह व्यक्ति मृत्यु के समय देह की ममता का त्याग कैसे कर पाएगा?
धन,पुत्र व पत्नी के मोह-त्याग से भी देह की ममता का त्याग करना अत्यंत कठिन कार्य है।
‘समत्व पूर्वक देह के ममत्व भाव का त्याग करना’ एक सामान्य साधना नहीं है। इसीलिए तो देह के त्याग के लिए जिन शासन में दैनिक तप-आराधना का विधान किया गया है।
तप-धर्म की साधना देह के ममत्व पर विजय पाने के लिए ही है।
मृत्यु को मंगलमय और महोत्सवरूप बनाने के लिए जीवन के अंत समय में निर्यामणा की जाती है