एक शुभ दिन बुद्धि निधान आर्यरक्षित मुनिवर ने अन्य मुनिवर के साथ उज्जैन नगरी की ओर विहार प्रारंभ कर दिया। सभी मुनिवर विहार में आने वाले परिषह-उपसर्गों को अत्यंत समता-समाधि पूर्वक सहन करने लगे।
धीरे-धीरे विहार यात्रा आगे बढ़ने लगी। इस प्रकार क्रमशः विहार करते हुए आर्यरक्षित मुनिवर उज्जैन नगरी के बाहर उद्यान में पहुंच गए
इस उद्यान में महान प्रभावक दशपूर्वधर आचार्य श्री भद्रगुप्तसूरी जी म. विराजमान थे। भद्रगुप्तसूरी जी की देहलता जर्जरीत हो चुकी थी। त्याग, तप तितिक्षा की साधना द्वारा उन्होंने अपने जीवन को सार्थक बना दिया था।
देह जर्जरित था…… परंतु उनके मुखमंडल पर अपूर्व ही तेज था कष्टों को समता पूर्वक सहन करना-उनका जीवन मंत्र था, इसी के फलस्वरुप से देह के प्रति निर्मम होकर संयमित जीवन की साधना कर रहे थे।
आर्यरक्षित मुनिवर ने खंड में प्रवेश करते हुए कहा-‘मत्थएण वन्दामि’
उनकी आवाज सुनकर भद्रगुप्तसूरीजी म. बोले-कोन?
भगवन! में आर्यरक्षित!- आर्यरक्षित मुनिवर ने जवाब दिया।
ओह! आर्यरक्षित! तुम हो। कह कर भद्रगुप्तसूरिजी अपने आसन से खड़े हो गए और उन्होंने आर्यरक्षित का स्वागत किया।
आर्यरक्षित ने भद्रगुप्तसूरीजी म. के पवित्र चरणों में प्रणाम किया और उनकी चरणरज अपने मस्तक पर लगा ली।
“भगवन! आप अपने आसन पर बिराजे, आपकी काया जरावस्था से घिरी हुई है।”
“आर्य! क्षीण होना तो शरीर का धर्म है। आखिर तो यह शरीर जडपुद्गलों से ही बना है न? आखिर कब तक इस का अस्तित्व रह सकेगा?”
“भगवन! अपने गोचरी वापरी? आज मुझे सेवा का लाभ दे।”
आचार्य भद्रगुप्तसूरीजी म. की सम्मति मिलते ही आर्यरक्षित मुनिवर गोचरी के लिए निकल पड़े और थोड़ी देर बाद गोचरी लेकर उपाश्रय में आ गए।
गोचरी वापरने के बाद भद्रगुप्तसूरीजी ने थोड़ी देर आराम किया।
आर्यरक्षित मुनिवर ने भद्रगुप्तसूरीजी की सेवा सुश्रुषा की।
थोड़ी देर बाद भद्रागुप्तसूरीजी म. अपने आसन पर बैठ गए। उन्होंने आर्यरक्षित को पूछा-रक्षित! तुम्हारे गुरुदेव कुशल है न?
भगवन! देव-गुरु की असीम कृपा से कुशल है।