संसारी जीवो के रंग-राग से आचार्य भगवंत सुपरिचित थे, अतः उन्होंने कहा, महानुभाव! तुम्हारी बात सत्य है…….. संसारी जीवों के लिए ममत्व का एक मजबूत बंधन होता है और उस बंधन को तोड़ना उनके लिए अत्यंत कठिन होता है……. अतः तुम्हारी भावना अनुसार दिक्षा के पश्चात यहां से विहार की भावना रखता हूं।
आचार्य भगवंत ने दीक्षा के लिए तत्पर बने आर्यरक्षित को महाव्रतो का स्वरूप समझाया। आर्यरक्षित यति-दिनचर्यादि आचारों को ध्यानपूर्वक सुनने लगा। ज्यों-ज्यों साधुजीवन के महाव्रतों का स्वरूप समझने लगा, त्यों-त्यों उसके दिल में उस पवित्र जीवन के प्रति सद्भाव तीव्र होने लगा।
आचार्य भगवंत ने आर्यरक्षित को भव और मोक्ष का यथार्थ स्वरुप समझाया। भव और मुक्ति के यथार्थ स्वरुप के अवबोध के साथ ही आर्यरक्षित का दिल भवबंधन से मुक्त बनने के लिए मुक्ति के परमानंद को पाने के लिए आतुर हो उठा।
“गुरूदेव! भव के बंधन से मुक्त बनने के लिए मुझ पर अनुग्रह कर…….. मुझे प्रव्रज्या प्रदान करो।
गुरुदेव ने उसकी भावना को जानकर दीक्षा विधि प्रारंभ की
जैन शासन में मुमुक्षुजन को ही दीक्षा दी जाती है। जिसके मन में संसार के प्रति भय पैदा हुआ हो……. जिसके दिल में मोक्ष के प्रति तीव्र रुचि पैदा हुई हो…… जिसके दिल में पाप के प्रति नफरत जगी हो।…… ऐसी आत्मा चारित्र्य धर्म के लिए योग्य गिनी गई है। जिसके दिल में संसार के सुखों के प्रति तीव्र राग आसक्ति रही हुई हो…… जिसके दिल में पाप के प्रति लेश भी भय न हो….. ऐसी आत्मा जैन शासन की प्रव्रज्या के लिए अयोग्य गिनी गई है।
भवबंधन से मुक्त बनने के लिए मुमुक्षु आत्मा गुरुदेव से स्वयं ही प्रार्थना करती है कि “मुझे प्रव्रजित ……..करो मुझे साधु वेष प्रदान करो।”
दीक्षा विधि की यह प्रणालीका है। उस विधि से पता चलता है कि जैन दीक्षा के अभिलाषी के जीवन में कितना विनय समर्पण भाव होना चाहिए।
जैन प्रव्रज्या कोई वेष परिवर्तन की क्रिया मात्र नहीं है। प्रव्रज्या कोई नाट्यकला का प्रदर्शन नहीं है।
जैन प्रव्रज्या तो जीवन समर्पण का एक अद्भुत समारोह है। मुमुक्षु आत्मा चारित्र्य-धर्म स्वीकार कर…….. अपने मन-वचन और काया के तीनों योग गुरु चरणों में समर्पित कर देती है। मुमुक्षु शिष्य का न तो स्वतंत्र विचार होता है……. न ही स्वतंत्र वाणी…… और न ही स्वतंत्र प्रवृत्ति।
जीनाज्ञा/शास्त्राज्ञा और गुरु आज्ञा का प्रतिबिंब ही ‘उसका विचार, उसकी वाणी और उसका वर्तन होता है।