……. आर्य रक्षित ने दूर से ही मां के चरणों में प्रणाम किया।
परंतु आश्चर्य मां ने कुछ भी प्रत्युत्तर नहीं दिया।
मां रुद्रसोमा उच्चतम संस्कारों से युक्त महासती सन्नारी थी। बचपन से ही उसने जैन धर्म का गहन अभ्यास किया था। जीव क्या है? पुण्य और पाप क्या है? इत्यादि तत्वों से वह पूर्ण ज्ञाता थी। तत्व की वह शुष्क ज्ञाता मात्र नहीं थी, उसने जैन तत्वज्ञान को जीवन में आत्मसात भी किया था……… उसके रोम रोम में जिनेश्वर परमात्मा के प्रति अपूर्व भक्ति और समर्पण का भाव था। उसका ह्रदय मैत्री के भावों से भावित था। ईर्ष्या, द्वेष व अहंकार की कालीमा को उसमें प्रेम-मैत्री व नम्रता, जल से धो दिया था। जगत के यथार्थ स्वरुप का उसे ज्ञान था। जगत के कर्मजन्य वैचित्र्य भावों को देखकर वह समत्व भाव में स्थिर रह सकती थी।
सम्यग्दर्शन का प्रदीप उसकी अंतरात्मा में प्रज्वलित था। आत्मबंधन रूप राग,द्वेष के यथार्थ स्वरुप की वह ज्ञाता थी। ‘ममत्व ही बंधन है’ । इस सनातन सत्य को मात्र उसने जाना ही नहीं था, बल्कि उसे जीवन में आत्मसात भी किया था। और इसी के फलस्वरुप उसे यह भौतिक संसार एक बंधन सा प्रतीत हो रहा था। जिनेश्वर परमात्मा के द्वारा बताए हुए सनातन सत्य के प्रति उसके दिल में अपूर्व श्रद्धा थी। संसार के भौतिक सुख क्षणिक है, नाशवंत है, इन सुखों की प्राप्ति से, आत्मा कभी तृप्त होने वाली नहीं है,- यह बात उसके दिल में जम चुकी थी।
रूद्रसोमा के मन में त्याग-तप और विरक्ति की भावना थी। वह अनेक बार सोचती थी, इस संसार के बंधन से में कब छुटूंगी?……. वह दिन कब आएगा जब मैं संसार के नश्वर संबंधों से मुक्त होकर शाश्वत पदार्थ आत्मा के साथ संबंध जोड़ सकूंगी! क्या मेरी संतान इसी भौतिक मार्ग पर चलेगी? अहो! क्या मेरी संतान भी भौतिकवाद के रंग में रंग जाएगी? ऐसा कोई उपाय नहीं है, जिससे मैं अपनी संतान को इस संसार से मुक्त कर सकूं?
वह सदा परमात्मा की पूजा भक्ति करती और प्रभु से भव-निर्वेद, मोक्ष संवेग, मार्गानुसारिता आदि गुणों की प्रार्थना करती।
मां रुद्रसोमा को भी यह समाचार मिल चुके थे कि उसका पुत्र चौदह विद्याओ में पारगामी बनकर आज नगर में प्रवेश कर रहा है………और महाराजा की ओर से उसका स्वागत होने वाला है…….. परंतु उस स्वागत यात्रा में वह नही गई थी।