लगभग 12 वर्ष के बाद पिता-पुत्र का मिलन होने वाला था। सोमदेव अपने दिलोदिमाग में अनेक कल्पना चित्र संजो रहा था।
आज वह अपने पुत्र के प्रती गर्व ले रहा था। मेरा पुत्र चोदह विद्याओ में पारगामी बनकर आ रहा है,……….वह राजसभा की शोभा में चार चांद लगाएगा……. मेरी कीर्ति का ध्वज दिग-दिगंत तक फैलाएगा।- वह भी सज धज कर अपने मित्र परिवार के साथ मनोरम उपवन में जाने के लिए निकल पड़ा था।
इतिहास इस बात का साक्षी है कि इस देश के महाराजा भी विद्वानों का आदर सत्कार और सम्मान करते थे। “विद्वान सर्वत्र पूज्यते” की उक्ति को वे प्राचीन राजा-महाराजा अपने जीवन में सार्थक करते थे। वाद-संवाद-संगोष्ठी तथा प्रवचन आदि के माध्यम से प्रजाजनों के संस्कारों के सिंचन के लिए वे अत्यंत जागरूक रहते थे।
दशपुर के राजा उदायन भी विद्वद प्रिय थे। वे अपनी राजसभा में विद्वानों को योग्य स्थान देते थे और उन्हें गौरव व सम्मान देते थे।
कुछ ही दिनों पूर्व राजा को आर्यरक्षित की प्रतिभा के समाचार मिले थे …………..तभी से उनके दिल में आर्यरक्षित के स्वागत की तीव्र इच्छा थी।
अपनी भावना के अनुरूप महाराजा ने आर्यरक्षित के स्वागत के लिए संपूर्ण नगर में घोषणा करवा दी थी।
दशपुर प्रजा भी विद्याव्यासंगी थी। विद्वनों के प्रति प्रजा के दिल में सद्भावना थी। इसी का फल था कि सभी प्रजाजन मनोरम उपवन की ओर जा रहे थे।
पण्डितवर्य आर्यरक्षित पास ही के गांव से आ रहे थे ……..उनके दो परिचित मित्र भी उनके साथ थे।
बराबर शुभ मुहूर्त मैं आर्य रक्षित मनोरम उद्यान में आ पहुंचे।
उनके आगमन के साथ ही पंडितवर्य आर्यरक्षित की जय हो के नाद से संपूर्ण आकाश गूंज उठा।