‘महाराजा, डर – शोक – रोग और प्रियजन वियोग वगैरह दुःखों से आक्रान्त इस मनुष्य लोक में सुख है कहां ? है तो कितना है ? केवल सुखाभास है। निरी मायामरीचिका है। इन्द्रजाल है ।’
राजा गुणसेन ने कहा :
‘भगवंत, ऐसी ज्ञानद्रष्टि , आपने किसी प्रसंग-घटना के द्वारा या कोई निमित्त पाकर प्राप्त की होगी ना ? या फिर किसी महान ज्ञानी के सम्यक परिचय से आपकी ज्ञानद्रष्टि उदघाटित हुई होगी ?’
आचार्य भगवंत ने कहा :
‘राजन, वैसा निमित्त भी मिला था और एक ऐसे महाज्ञानी महात्मा का परिचय भी हुआ था । बड़ी रोमांचक है वह घटना । काफी रसभरी है मेरे जीवन की वह कथा – व्यथा ।’
‘प्रभो , वह सुनने की मेरी जिज्ञासा है । आप सुनाने की कृपा कीजिए ।’
‘सुनो मेरी कहानी :
इसी पश्चिम महाविदेह में ‘गंधार’ नाम का देश है । उसमें ‘गंधारपुर’ नाम का नगर है । वहां का रहनेवाला मैं ‘विजयसेन’ नाम का राजकुमार था ।
राजपुरोहित सोमवसु का पुत्र ‘विभावसु’ मेरा प्राणिप्रिय दोस्त था । हमारी दोस्ती की प्रशंसा सारे नगर में होती थी । हम साथ खेलते…. साथ साथ खाते…. साथ गाते…. साथ साथ घूमते…. और साथ साथ ही रहते हमेशा । पर न जाने हमारी दिलोजान दोस्ती को किसी की बुरी नजर लग गई की क्या हुआ…, मेरा वह मित्र विभावसु एक दिन अचानक ही रोगग्रस्त हो गया ।
विभावसु को रोगमुक्त करने के लिए मैंने कई तरह के औषधोपचार करवाये । परंतु उसे जरा भी स्वास्थ्य प्राप्त नहीं हुआ । रात-दिन मैं उसके पास ही रहता था। धीरे धीरे वह मुत्यु की ओर आगे बढ़ रहा था। मेरे दुःख की कोई सीमा नहीं रही थी। मेरे दुःख – दर्द का कोई उपाय नहीं था ।
एक दिन उसकी मुत्यु हो गयी। उसका अग्निसंस्कार कर दिया गया। मेरा मन मेरे मित्र की स्मृति में अत्यंत व्याकुल-बेचैन रहता था। मेरा घूमना – फिरना सब कुछ बंद हो चूका था। अच्छा खाना…पीना…पहनना…मैंने सब छोड़ दिया था ।
दिया था । मेरा जीवन बिल्कुल नीरस एवं जलते रेगिस्तान सा हो गया था ।
मेरे स्वजन– स्नेहीजन और प्रजाजन… सभी मेरे प्रति हार्दिक सहानुभूति रखते थे ।
आगे अगली पोस्ट मे…