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युगप्रधान वज्रस्वामी – भाग 1

अवंति देश!

तुम्बवन नगर!

उस नगर में धन श्रेष्ठी रहता था। वह अत्यंत ही न्याय प्रिय और पापभीरू था। उस धन श्रेष्ठी के धनगीरी नाम का इकलौता बेटा था।पूर्व भव की आराधना और सुसंस्कारों के फलस्वरुप बाल्यकाल से ही धनगिरी के मन में संसार के प्रति विरक्ति का भाव था। योवन में काम-उन्माद की अधिक संभावना रहती है। बिहावने जंगलों को निर्भयता के पार करने में समर्थ नवयुवक भी योवन के वन में जहां तहां भटक जाते हैं।. . . परंतु विरल आत्माएं ऐसी होती है, जो योवन के प्रांगण में प्रवेश करने पर भी योवन का उन्माद उनके अंतर्मन को छू नहीं पाता है ।

कोयल से भरी कोटरी में प्रवेश करने के बाद बेदाग बाहर निकलना जैसे कठिन है, उसी प्रकार योवन के प्रांगण में प्रवेश करने के बाद भोग सुखो से अलिप्त रहना, अत्यंत ही कठिन है।

धनगिरी अलग ही माटी का इंसान था। उसके दिल में भौतिक सुखों का लेश भी आकर्षण नहीं था. . . उसे वैषयिक सुख अत्यंत ही तुच्छ प्रतीत होते थे ।

उसी नगरी में धनपाल नाम का सेठ रहता था ।उसे आर्यसमीर नाम का पुत्र और सुनंदा नाम की पुत्री थी। योवन के प्रांगण में प्रवेश करने के साथ ही चंद्रमा की सोलह कलाओं की भांति उसका रूप सौंदर्य एकदम खिल उठा था।

सुनंदा ने धनगिरी के बाह्य सौंदर्य को देखा और उसे अपने दिल में बसा दिया ।उसने मनोमन धनगीरी के साथ ही शादी करने का संकल्प कर लिया।

सुनंदा धनगिरी को दिल से चाहती थी। परंतु धनगिरी के मन में सुनंदा के प्रति कुछ भी आकर्षण नहीं था। उसके मन में तो रुप वती रानी भी एक मात्र हाड़-माँस की पुतलियां ही थी। आखिर नारी देह में क्या है? साक्षात रति की अवतार समान लगती विश्व सुंदरी नारी के देह पर से एक चमड़ी को हटा दिया जाय…….तो उस और एक नजर डालने का भी मन नहीं होगा। कितना बिभत्स है नारीदेह! जिसके भीतर हाड़- मांस-चर्बी- मल-मूत्र आदि ही तो रहा हुआ है।

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