भागवती दीक्षा स्वीकार करने के बाद शय्यंभव मुनि ज्ञान ध्यान की साधना में लीन बन गए । अनुकूल प्रतिकूल परिषह उपसर्गो को वे अत्यंत ही समतापूर्वक सहन करने लगे । उपवास , छट्ठ , अट्ठम आदि विविध तपो के द्वारा उनका बाह्य-अभ्यन्तर तेज खूब खूब बढ़ने लगा।. . . इसी प्रकार गुरु शुश्रुषा में लीन बने शय्यंभव मुनि ने अल्पकाल में चौदह पूर्वो का अध्ययन कर लिया।
गुरुदेव ने उन्हें योग्य जानकर आचार्य पद प्रदान किया। उसके बाद प्रभवस्वामी अत्यंत ही समाधिपूर्वक कालधर्म प्राप्त कर देवलोक में उत्पन्न हुए।
शय्यंभव ब्राम्हण की दीक्षा की बात सुनकर और उसकी पत्नी को युवावस्था में देखकर आसपास के लोग शय्यंभव की निंदा करने लगे और कहने लगे , ‘अहो! यह शय्यंभव कितना निष्ठुर है…… अपनी युवा-पत्नी को इस प्रकार अकेली छोड़कर उसने दीक्षा अंगीकार कर ली। पति के आभाव में स्त्री, पुत्र के आधार पर अपना जीवन व्यतीत करती है; परन्तु इसे तो पुत्र भी पैदा नही हुआ है। अहो! यह किस प्रकार अपना जीवन व्यतीत करेगी।
उसी समय किसी स्त्री ने शय्यंभव की स्त्री को पूछ ही लिया , ‘ क्या तुम्हारे उदर में गर्भ की संभावना लगती है?’
उसने प्राकृत भाषा में कहा, ‘मणयम्’ अर्थात कुछ संभावना है।
धीरे-धीरे समय व्यतीत हुआ और गर्भ भी बढ़ने लगा । गर्भकाल पूर्ण होने पर उसने एक अत्यंत ही तेजस्वी पुत्र-रत्न को जन्म दिया।
गर्भकाल के दौरान माता ने जो ‘मणयं’ शब्द का प्रयोग किया था उसके अनुसार उस बालक का ‘मनक’ नाम पड़ा और इस नाम से वह प्रसिद्ध हो गया ।
शय्यंभव की स्त्री के लिए अब मनक ही आधार स्तम्भ था। वह अत्यंत ही लाड़-प्यार से उस बालक का पालन पोषण करने लगी। तीक्ष्ण-प्रज्ञा के कारण वह अल्पकाल में ही अनेक विद्याओं में निपुण हो गया।
मनक जब आठ वर्ष का हुआ, तब उसके दिल में एक सन्देह उत्पन्न हुआ। उसने अपने घर पर कभी भी अपने पिता के दर्शन नही किये और दूसरी और उसकी माता के सुहागिन के वस्त्र देखे। एक बार उसने माँ को पूछ ही लिया, ‘माँ! मेरे पिता कहा है? में उन्हें देखना चाहता हूँ।
बेटे की इस बात को सुनकर माँ की आँखे डबडबा गई। उसकी आँखों में पति वियोग की पीड़ा के आंसू उभर आए। कुछ समय बाद साहस करके वह बोली, ‘बेटा! जब तू गर्भ में था, तभी तेरे पिता शय्यंभव नाम के यज्ञ में रत थे, परन्तु किसी धूर्त श्रमणों ने ठगकर उन्हें दीक्षा दे दी है।’