शय्यंभव को सन्मार्ग की प्राप्ति हो चुकी थी, अतः उसने नम्रता पूर्वक कहा , पूज्यवर! आपने सत्य तत्त्व को बतलाकर मुझे सत्य मार्ग प्रदान किया है; अतः आप मेरे उपाध्याय हो।’
उसके बाद शय्यंभव ने उस उपाध्याय को सुवर्ण व ताम्र के विविध उपकरण भेंट किए । तत्पश्चात उन मुनियो को शोध में वह शय्यंभव निकल पड़ा ।
कुछ दूरी पार करने पर उसे दोनो मुनियो के पद चिन्ह दिखाई दिए । उन पद चिन्हों के अनुसार वह प्रभव स्वामी के पास पहुँच गया । उसने प्रभव स्वामी के चरणों में भाव पूर्वक नमन कीया। आचार्य भगवंत ने भी उसे धर्मलाभ की आशीष दी।
उसके बाद उसने आचार्य भगवंत को मोक्ष के कारण भूत, धर्म तत्त्व के बारे में पुछा ।
आचार्य भगवंत ने उसे धर्म का तत्त्व समझाते हुए कहा ,’ इस संसार में जैसे अपने को जीना पसन्द है और मरना पसन्द नही है; उसी प्रकार संसार में जीव मात्र को जीना पसन्द हे ,मरना पसन्द नही है। अतः अपने निजी स्वार्थ के लिए दूसरे जीवो को मौत के घाट नही उतारना चाहिए । ‘ दया’ ही सबसे बड़ा धर्म है । सत्य , अचौर्य , ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह का पालन भी अहिंसा धर्म के पालन रक्षण के लिए ही है । जो व्यक्ति हिंसादि पांच पापो का सर्वथा त्याग करते है; वे ही शाश्वत अजरामर मोक्ष पद प्राप्त करते है।’
इसके बाद आचार्य भगवंत ने उसे जैनदर्शन में निर्दिष्ट जीवादि तत्त्वों का विस्तृत स्वरूप समझाया, जिसे सुनकर शय्यंभव के दिल में इस आसार संसार के प्रति तीव्र वैराग्य भाव उत्पन्न हो गया ।
प्रभव स्वामी के चरणों में नमस्कार करके वह बोला , ‘प्रभो! सद्गुरु के समागम के आभाव के कारण आज तक मुझे अतत्त्व में ही तत्त्व बूद्धि बनी रही । आज मेरे ज्ञान चक्षु खुल गए है । आपके अनुग्रह से मुझे तत्त्व अमृत की प्राप्ति हुई है; में इस संसार से विरक्त बन चूका हूँ। भागवती दीक्षा प्रदान कर आप मेरा उद्धार करे।’
बस, उसी समय शय्यंभव की योग्यता को जानकर आचार्य भगवंत ने उसे भागवति दीक्षा प्रदान की । आचार्य भगवंत चिंता मुक्त बन गए …… उन्हें जिस योग्य उत्तराधिकारी की आवश्यकता थी , वह उत्तराधिकारी उन्हें मिल गया था।